SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम कर्मग्रन्थ २६३ इसके सिवाय सर्वत्र उसका अजघन्य अनुभाग बंध होता है। स्त्यानद्धि, निद्रा-निद्रा और प्रचला-प्रचला, मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय का जघन्य अनुभाग बंध विशुद्ध परिणामी मिथ्यादृष्टि अपने गुणस्थान के अंतिम समय में करता है और शेष सर्वत्र उनका अजघन्य अनुभाग बंध होता है। उसके बाद संयम वगैरह को प्राप्त करके वहां से गिरकर पुनः उनका अजघन्य अनुभाग बंध करता है तो वह सादि और उसके पहले का अनादि, अभव्य का बंध ध्रुव और भव्य का बंध अध्रुव होता है। इस प्रकार ४३ ध्रुवप्रकृतियों का अजघन्य अनुभाग बंध चार प्रकार का होता है। ___ अब उनके जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध के दो-दो प्रकारों को स्पष्ट करते हैं । उक्त ४३ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थानों में होता है जो उन-उन गुणस्थानों में पहली बार होने से सादि है। बारहवें आदि ऊपर के गुणस्थानों में नहीं होने से अध्रुव है । उत्कृष्ट अनुभाग बंध उत्कृष्ट संक्लेश वाला पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्या दृष्टि जीव करता है जो एक या दो समय तक होता है । उसके बाद अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध करता है। कालान्तर में उत्कृष्ट संक्लेश के होने पर पुनः उनका उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है । इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध में सादि और अध्रुव दो ही विकल्प होते हैं । ___ अब अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि चारों अनुभाग बंधों को बतलाते हैं । अध्रुवबंधिनी होने से इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनु त्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभाग बंध के सादि और अध्रुव यह दो प्रकार होते हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चारों घाति कर्म अशुभ हैं । इनका अजघन्य अनुभाग बंध चार प्रकार का होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy