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शतक
विचार करते हैं । तैजस चतुष्क के सिवाय शेष ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का अजघन्य अनुभाग बंध चार प्रकार का होता है। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अंतराय, ये चौदह प्रकृतियां अशुभ हैं और इनका जघन्य अनुभाग बंध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंत में होता है और ग्यारहवें में इनका बंध नहीं होता है। अतः ग्यारहवें गुणस्थान से च्युत होकर जो अनुभाग बंध होता है वह सादि है और उससे पहले का बंध अनादि है। भव्य का बंध अध्रुव और अभव्य का बंध ध्रुव है।
संज्वलन चतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध क्षपक अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में अपने बंधविच्छेद के समय में होता है। इसके सिवाय अन्य सब जगह अजघन्य बन्ध होता है। ग्यारहवें गुणस्थान में बंध नहीं होता है, अतः वहां से च्युत होकर जो बंध होता है वह सादि है, उससे पहले का अनादि, भव्य का बंध अध्रुव और अभव्य का बन्ध ध्रुव है।
निद्रा, प्रचला, अशुभ वर्णचतुष्क, उपघात, भय और जुगुप्सा का क्षपक अपूर्वकरण में अपने-अपने बंधविच्छेद के समय में एक समय तक जघन्य अनुभाग बंध और अन्य सब स्थानों पर अजघन्य अनुभाग बंध होता है । उपशम श्रेणि में गिरने पर पुनः उनका अजघन्यबंध होता है जो सादि है । बंधविच्छेद से पहले उनका बंध अनादि, अभव्य का बंध ध्रुव और भव्य का बंध अध्रुव है।
प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध देशविरति गुणस्थान के अंत में संयमाभिमुख करता है और उससे पहले होने वाला बंध अजघन्य बंध है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध क्षायिक सम्यक्त्व और संयम प्राप्त करने का इच्छुक अविरत सम्यग्दृष्टि जीव अपने गुणस्थान के अंत में करता है।
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