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( २६ ) उक्त पाँचों का सामान्य विवेचन इस तरह है
सर्वप्रथम आत्मा अपर्वतनाकरण के द्वारा कर्मों को अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर गुणश्रेणि का निर्माण करती है। स्थापना का क्रम यह है कि-उदयकालीन समय को लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रथम उदया. त्मक समय को छोड़कर अन्तर्मुहूर्त के शेष जितने समय हैं, इनमें कर्मदलिकों को क्रमबद्ध श्रेणी रूप से स्थापित किया जाता है । प्रथम समय में स्थापित कर्मदलिक सबसे कम होते हैं। दूसरे समय में स्थापित कर्मदलिक प्रथम समय में स्थापित कर्मदलिकों से असंख्यात गुणे अधिक, तीसरे समय में द्वितीय समय से भी असंख्यात गुणे अधिक होते हैं। यह क्रम अन्तर्महुर्त के चरम समय तक जानना चाहिए । इस प्रकार प्रत्येक समय कर्मदलिकों की स्थापना असंख्यात गुणी अधिक होने के कारण इसे गुणश्रेणि कहा जाता है।
इस अवसर पर आत्मा अतीव स्वल्प स्थिति के कर्मों का बन्धन करती है, जैसा उसने पहले कभी नहीं किया है । अतः इस अवस्था का बंध अपूर्व स्थितिबंध कहलाता है । स्थितिघात और रसधात भी इस समय में अपूर्व होता है । गुण-संक्रमण में अशुभ कर्मों की शुभकर्म रूप परिणति होती जाती है। ___ अष्टम गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में ज्यों-ज्यों आत्मा बढ़ती है, त्यों-त्यों अल्प समय में कर्मदलिक अधिक मात्रा में क्षय होते जाते हैं। ___इस उत्क्रान्ति की स्थिति में बढ़ती हुई आत्मा जब परमात्मशक्ति को जागृत करने के लिए सन्नद्ध हो जाती है, आयु अल्प रहता है एवं कर्मदलिक अधिक रहते हैं तब इन अधिक स्थिति और दलिकों वाले कर्मों को आयु के समय के बराबर करने के लिए केवलीसमुद्घात होता है । इस समुद्घात काल में अधिक शक्तिशाली माने जाने वाले कर्मों को आत्मा अपने वीर्य से पराजित कर दुर्वल बना देती है ।
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