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( २५ ) जाता है। यह कर्मोदय दो प्रकार का है-(१) प्रदेशोदय और (२) विपाकोदय ।
(जिन कर्मों का भोग सिर्फ प्रदेशों में होता है, उसे प्रदेशोदय कहते हैं और जो कर्म शुभ-अशुभ फल देकर नष्ट होते हैं, वह विपाकोदय है। कर्मों का विपाकोदय ही आत्मा के गुणों को रोकता है और नवीन कर्मबन्ध में योग देता है। जबकि प्रदेशोदय में नवीन कर्मों के बन्ध करने की क्षमता नहीं है और न वह आत्मगुणों को आवृत करता है । कर्मों के द्वारा आत्मगुण प्रकट रूप से आवृत होने पर भी कुछ अंशों में सदा अनावृत ही रहते हैं, जिससे आत्मा के अस्तित्व का बोध होता रहता है। कर्मावरणों के सघन होने पर भी उन आवरणों में ऐसी क्षमता नहीं है जो आत्मा को अनात्मा, चेतन को जड़ बना दें। कर्मक्षय की प्रक्रिया
जैनदर्शन की कर्म के बन्ध, उदय की तरह कर्मक्षय की प्रक्रिया भी सयुक्तिक और गम्भीरता लिए हुए है। स्थिति के परिपाक होने पर कर्म उदयकाल में अपना वेदन कराने के बाद झड़ जाते हैं । यह तो कर्मों का सहज क्षय है । इसमें कर्मों को परम्परा का प्रवाह नष्ट नहीं होता है । पूर्व कर्म नष्ट हो जाते हैं लेकिन साथ ही नवीन कर्मों का का बन्ध चालू रहता है। यह कर्मों के क्षय की यथार्थ प्रक्रिया नहीं है । कर्मों का विशेष रूप से क्षय करने के लिए जिससे आत्मा अ-कर्म होकर मुक्त हो सके, विशेष प्रयत्न करना पड़ता है । यह प्रयत्न संयम, तप, त्याग आदि साधनों द्वारा किए जाते हैं। अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान तक तो उक्त साधनों द्वारा कर्मक्षय विशेष रूप से होता रहता है और सातवें गुणस्थान में आत्म-शक्ति में प्रौढ़ता आने के बाद जब आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान की प्राप्ति करती है तो विशेष रूप से कर्मक्षय करने के लिए विशेष प्रकार की प्रक्रिया होती है । वह इस प्रकार है-(१) अपूर्व स्थितिघात (२) अपूर्व रसघात, (३) गुण श्रेणि, (४) संक्रमण, (५) अपूर्व स्थितिबंध ।।
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