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________________ पंचम कर्मग्रन्थ २४१-१ योग्य प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति के समय होता है । इन उनतीस प्रकृतियों के बंधकों में अपूर्वकरण क्षपक ही अति विशुद्ध होता है । उक्तवतीस प्रकृतियों के नाम गुणस्थानों के क्रम से इस प्रकार हैं वैक्रियद्विक, देवद्विक, आहारकद्विक, शुभ विहायोगति, वर्णचतुष्क, तेजसचतुष्क (तेजस, कार्मणअगुरुलघु, निर्माण), तीर्थंकर, समचतुरस्र संस्थान, पराघात, यशः कीर्ति नामकर्म को छोड़कर त्रसदशक में गर्भित स, बादर, पर्याप्त आदि नौ प्रकृतियाँ, पंचेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास, इन उनतीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग का बंध आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग में देवगति योग्य प्रकृतियों के बंधविच्छेद के समय होता है । साता वेदनीय, यशः कीर्ति नामकर्म और उच्च गोत्र इन तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंत में होता है। इस प्रकार से अभी तक १७ और ३२ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन करने के बाद अब शेष प्रकृतियों के बारे में विचार करते हैं ' तमतमगा उज्जोय' यानी तमः तमप्रभा नामक सातवें नरक के नारक उद्योत नामकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग बंध करते हैं । इसका कारण यह है कि सातवें नरक का नारक सम्यक्त्वप्राप्ति के लिये यथाप्रवृत्त आदि तीन करण करते समय अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्व का अंतरकरण करता है । उसके करने पर मिथ्यात्व की स्थिति के दो भाग हो जाते हैं - एक अन्तरकरण से नीचे की स्थिति का, जिसे प्रथम स्थिति कहते हैं और इसका काल अन्तमुहूर्त मात्र है तथा दूसरा उससे ऊपर की स्थिति का, जिसे द्वितीय स्थिति कहते हैं । मिथ्यात्व की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नीचे की स्थिति के अंतिम समय में यानी जिससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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