________________
२४२
शतक
आगे के समय में सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, उस समय में उस जीव के उद्योत प्रकृति का उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है। क्योंकि यह .. उद्योत प्रकृति शुभ है और विशुद्ध परिणामों से ही उसका उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है तथा उसके बांधने वालों में सातवें नरक का उक्त नारक ही अति विशुद्ध परिणाम वाला है । क्योंकि अन्य गतियों में इतनी विशुद्धि होने पर मनुष्यगति अथवा देवगति के योग्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है । उद्योत प्रकृति तिर्यंचगति के योग्य प्रकृतियों में से है और सातवें नरक का नारक मरकर नियम से तिर्यंच में जन्म लेता है, जिससे सातवें नरक का नारक मिथ्यात्व में प्रतिसमय तिर्यंचगति योग्य कर्मों का बंध करता है।
मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और वज्रऋषभनाराच संहनन, इन पांच प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध का स्वामी सम्यग्दृष्टि देवों को बतलाया है-सम्मसुरा मणुयउरलदुगवइरं । यद्यपि इन पांच प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध विशुद्ध परिणाम वाले नारक भी कर सकते हैं, लेकिन वे नरक के दुःखों से पीड़ित रहने के कारण उतनी विशुद्धि प्राप्त नहीं कर पाते हैं तथा उनको देवों की तरह तीर्थंकरों की विभूति के दर्शन, उपदेशश्रवण, वंदन आदि परिणामों को विशुद्ध करने वाली सामग्री भी नहीं मिलती है, जिससे नारकों का ग्रहण नहीं किया गया है । तिर्यंच और मनुष्य तो अति विशुद्धि परिणाम वाले होने पर देवगति के योग्य प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं । इसीलिये इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध का स्वामी सम्यग्दृष्टि देवों को बतलाया है।
देवायु के उत्कृष्ट अनुभाग बंध का स्वामी अप्रमत्त मुनि को बतलाया है । क्योंकि यहां उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों को बतलाया जा रहा है, अतः देवायु का बन्ध करने वाले मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरति आदि से वही अति विशुद्ध होते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org