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पंचय कर्मग्रन्थ
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चाहिये कि नीम और ईख का एक-एक सेर रस लेकर उन्हें आग पर उबाला जाये और जलकर आधा सेर रह जाये तो वह द्विस्थानिक रस कहा जायेगा, क्योंकि पहले के स्वाभाविक रस से उस पके हुए रस में दूनी कड़ वाहट और दूनी मधुरता आ गई। वही रस उबलने पर सेर का तिहाई रह जाता है तो त्रिस्थानिक रस समझना चाहिए, क्योंकि उसमें पहले के स्वाभाविक रस से तिगुनी कड़वाहट या तिगुनी मधुरता आ गई है । वही रस जब उबलने पर एक सेर का पाव भर रह जाता है तो वह चतुःस्थानिक रस है, क्योंकि पहले के स्वाभाविक रस से उसमें चौगुनी कड़ वाहट और चौगुना मीठापन पाया जाता है।
__ अब उक्त उदाहरण के आधार से अशुभ और शुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक आदि को घटाते हैं । जैसे नीम के एकस्थानिक रस से द्विस्थानिक रस में दुगनी कड़वाहट होती है, त्रिस्थानिक में तिगुनी कडुवाहट और चतुःस्थानिक में चौगुनी कड़ वाहट होती है, वैसे ही अशुभ प्रकृतियों के जो स्पर्धक सबसे जघन्य रस वाले होते हैं, वे एकस्थानिक रस वाले कहे जाते हैं, उनसे विस्थानिक स्पर्धकों में अनंतगुणा रस होता है, उनसे त्रिस्थानिक स्पर्धकों में अनन्तगुणा रस और उनसे चतुःस्थानिक स्पर्धकों में अनन्तगुणा रस होता है । इसी प्रकार शुभ प्रकृतियों में भी समझ लेना चाहिये कि एकस्थानिक से द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ स्थानों में अनन्तगुणा शुभ रस होता है ।
उक्त चारों स्थान अशुभ प्रकृतियों में कषायों की तीव्रता बढ़ने से और शुभ प्रकृतियों में कषायों की मंदता वढ़ने से होते हैं । कषायों की तीव्रता के बढ़ने से अशुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक से लेकर चतुःस्थानिक पर्यन्त रस पाया जाता है और कषायों की मंदता के बढ़ने से शुभ प्रकृतियों में विस्थानिक से लेकर चतुःस्थानिक पर्यन्त रस पाया
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