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________________ शतक २३६ जाता है । शुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक रसबंध नहीं होता है।' इस प्रकार से अनुभाग बंध का स्वरूप, उसके कारण और भेदों का वर्णन करके अब अनुभाग बन्ध के स्वामियों को बतलाते हैं । पहले उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन करते हैं । तिव्वमिगथावरायव सुरमिच्छा विगलसुहुमनिरयतिगं । तिरिमणुयाउ तिरिनरा तिरिदुगछेवट्ठ सुरनिरया ॥६६॥ ___ शब्दार्थ--तिव्वं-तीव्र अनुभाग बंध, इगथावरायवएकेन्द्रिय जाति, स्थावर और आतप नामकर्म का, सुरमिच्छामिथ्यादृष्टि देव, विगलसुहुमनिरयतिगं --विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक और नरकत्रिक का, तिरिमणुयाउ-तिर्यंचायु और मनुष्यायु का, तिरिनरातिर्यंच और मनुष्य, तिरिदुगछेवट्ठ --तिर्यंचद्विक और सेवात संहनन का, सुरनिरिया -देव और नारक । १ गो० कर्मकांड में भी अनुभाग बंध का वर्णन कर्मग्रन्थ के वर्णन से मिलता जुलता है, लेकिन कथनशैली भिन्न है । उसमें घातिकर्मों की शक्ति के चार विभाग किये हैं-लता, दारु, अस्थि और पत्थर (गा०-१८०)। जैसे ये चारों पदार्थ उत्तरोतर अधिक कठोर होते हैं, उसी प्रकार कर्मों की शक्ति समझना चाहिए। इन चारों विभागों के क्रमशः एक, द्वि, त्रि और चतुः स्थानिक नाम दिये जा सकते हैं। इनमें लता भाग देशघाती है और दारु भाग का अनंतवां भाग देशघाती और शेष बहुभाग सर्वघाती है । अस्थि और पत्थर भाग तो सर्वघाती ही हैं । अघातीकर्मों के पुण्य और पाप रूप दो विभाग करके पुण्य प्रकृतियों के गुड़, खांड, शक्कर और अमृत रूप चार विभाग किये हैं और पाप प्रकृतियों में नीम, कंजीर, विष और हलाहल इस तरह चार विभाग किये हैं (गा० १८४) । इन विभागों को भी क्रमश: एक, द्वि, त्रि और चतुःस्थानिक नाम दिया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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