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________________ २३४ शतक - शब्दार्थ - निंबुच्छरसो-नीम और ईख का रस, सहजो-स्वाभाविक, दुतिचउभागकड्ढि — दो, तीन और चार भाग में उबाले जाने पर, इक्कमागतो- - एक भाग शेष रहे वह, इगठाणाई -- एकस्थानिक आदि, अहो - अशुभ रस, असुहाणं - अशुभ प्रकृतियों का, सुहो - शुभ रस, सुहाण - शुभ प्रकृतियों का, तु–और । गाथार्थ -- नीम और ईख का स्वाभाविक रस तथा उसको दो, तीन, चार भाग में उबाले जाने पर एक भाग शेष रहे, उसे अशुभ प्रकृतियों का एकस्थानिक आदि अशुभ रस और शुभ प्रकृतियों का शुभ रस जानना चाहिये । विशेषार्थ - पूर्व गाथा में अनुभाग बंध के एकस्थानिक, द्विस्थानिक आदि चार भेद बतलाये हैं। उनका विशेष स्पष्टीकरण करने के साथसाथ शुभ और अशुभ प्रकृतियों के स्वभाव का भी संकेत यहां किया गया है । अशुभ प्रकृतियों को नीम और उनके रस को नीम के रस की तथा शुभ प्रकृतियों को ईख तथा उनके रस को ईख के रस की उपमा दो है । जैसे नीम का रस स्वभाव से ही कड़ ुआ होने से पीने वाले के मुख को कड़वाहट से भर देता है, वैसे ही अशुभ प्रकृतियों का रस भी अनिष्टकारक और दुःखदायक है तथा जैसे ईख स्वभावतः मीठा और उसका रस मधुर, आनन्ददायक होता है, वैसे ही शुभ प्रकृतियों का रस भी जीवों को आनन्ददायक होता है । यह तो सामान्यतया बतलाया गया है कि नीम और ईख के पेरने पर उनमें से निकलने वाला स्वाभाविक रस स्वभावतः कड़वा और मीठा होता है । इस कड़ वेपन और मीठेपन को एकस्थानिक रस जानना चाहिए । इस स्वाभाविक एकस्थानिक रस के द्विस्थानिक, तिस्थानिक और चतुः स्थानिक प्रकारों को क्रमशः इस प्रकार समझना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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