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पंचम कर्मग्रन्थ
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काल उतना ही समझना चाहिये । क्योंकि उनके अवन्धकाल में ही इनका बन्ध हो सकता है। इस समयप्रमाण को इस प्रकार समझना चाहिए कि
(कोई जीव बाईस सागर प्रमाण स्थितिबंध करके छठे नरक में उत्पन्न हुआ, वहां पराघात आदि इन सात प्रकृतियों की प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बन्ध न होने से इन सात प्रकृतियों का निरन्तर बन्ध किया और अंतिम समय में सम्यक्त्व को प्राप्त करके मनुष्यगति में जन्म लिया । यहाँ अणुव्रतों का पालन करके चार पल्य की स्थिति वाले देवों में जन्म लिया और सम्यक्त्व सहित मरण करके पुनः मनुष्य हुआ और महाव्रत धारण करके मरकर नौवें वेयक में इकतीस. सागर की आयु वाला देव हुआ। वहां मिथ्यादृष्टि होकर मरते समय पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करके मनुष्य हुआ । वहां से तीन बार मरमरकर अच्युत स्वर्ग में जन्म लिया और इस प्रकार छियासठ सागर पूर्ण किये । अन्तमुहूर्त के लिए तीसरे मिश्र गुणस्थान में आया और उसके बाद पुनः सम्यक्त्व प्राप्त किया और दो बार विजयादिक में जन्म लेकर छियासठ सागर पूर्ण किये । इस प्रकार छठे नरक वगैरह में भ्रमण करते हुए जीव को कहीं भवस्वभाव से और कहीं सम्यक्त्व के कारण पराघात आदि प्रकृतियों का बन्ध होता रहता है ।
शुभ विहायोगति, पुरुषवेद, सुभगत्रिक, उच्चगोत्र और समचतुरस्र संस्थान इन सात प्रकृतियों का उत्कृष्ट निरंतर बन्धकाल एकसौ बत्तीस'
१ पंचसंग्रह की टीका में इन प्रकृतियों का निरन्तर बन्धकाल तीन
पल्य अधिक एक सौ वत्तीस सागर बतलाया है। वहां कहा है कि तीन पल्य की आयु वाला तिर्यच अथवा मनुष्य भव के अंत में सम्यक्त्व को प्राप्त करके पहले बताये हुये क्रम से १३२ सागर तक संसार में भ्रमण करता है।
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