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शतक
सागर है। अध्रुववन्धिनो प्रकृतियां होने से इनका जघन्य बन्धकाल एक समय है लेकिन उत्कृष्ट बन्धकाल एकसौ बत्तीस सागर होने का कारण यह है कि गाथा ५७ में इनकी विपक्षी प्रकृतियों का उत्कृष्ट अवन्धकाल एकसौ वत्तीस सागर बतालाया है, अतः इनका बन्धकाल उसी क्रम से उतना ही समझना चाहिये।
( एक समय से लेकर अन्तमुहूर्त तक बन्धने वाली इकतालीस प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं
अशुभ विहायोगति, अशुभ जातिचतुष्क (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय), वज्रऋषभनाराच संहनन को छोड़कर शेष ऋषभनाराच आदि पांच अशुभ संहनन, न्यग्रोधपरिमण्डल आदि पांच अशुभ संस्थान, आहारकद्विक, नरकद्धिक, उद्योतद्विक, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति, स्थावर दशक, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, युगलद्विक, (हास्य-रति और शोक-अरति) और असाता वेदनीय ।) ___ उक्त इकतालीस प्रकृतियों का निरन्तर वन्धकाल कम-से-कम एक समय और अधिक-से-अधिक अन्तमुहूर्त बतलाया है। ये प्रकृतियाँ अध्रुवबन्धिनी हैं अतः अपनी-अपनी विरोधी प्रकृतियों की बन्धयोग्य सामग्री के होने पर इनका अन्तमुहूर्त के पश्चात् बन्ध रुक जाता है। इन इकतालीस प्रकृतियों के निरन्तर बन्ध होने के उत्कृष्ट काल को अन्तमुहूर्त मानने का कारण यह है कि साता वेदनीय, रति, हास्य, स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति की विरोधिनी प्रकृतियां असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति का बन्ध छठे गुणस्थान तक होता है, अतः वहाँ तक तो इनका निरन्तर बन्ध अन्तमुहूर्त तक होता है किन्तु उसके बाद के गुणस्थानों में भी इनका बन्धकाल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि उन गुणस्थाना का काल भी अन्तमुहूर्त प्रमाण है।
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