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________________ शतक अब आगे की चार गाथाओं में शेष प्रकृतियों के नाम गिनाकर उनके निरन्तर बंध के समय को बतलाते हैं। समयादसंखकाल तिरिदुगनीएसु आउ अंतमुहू। उरलि असंखपरट्टा साठिई पुवकोणा ॥५६॥ जलहिसयं पणसीयं परघुस्सासे पणिदितसचउगे। बत्तीसं सुहविहगइपुमसुभगतिगुच्चचउरंसे ॥६०।। असुखगइजाइआगिइ संघयणाहारनरयजोयदुगं । थिरसुभजसथावरदसनपुइत्थीदुजुयलमसायं ॥६१॥ समयादतमुहत्तं मणुदुगजिणवइरउरलवंगेसु । तित्तोसयरा परमा अंतमुह लहू वि आउजिणे ॥६॥ शब्दार्थ-समयादसंखकालं-एक समय से लेकर असंख्य काल तक, तिरिदुगनीएसु तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र का, आउ आयु. कर्म का, अंतमुह-अन्तर्मुहूर्त तक, उरलि-औदारिक शरीर का, असंख परट्टा ---असंख्यात पुद्गल परावर्त, सायठिई-सातावेदनीय का बंध, पुवकोणा—पूर्व कोटि वर्ष से न्यून । जलहिसयं-एक सौ सागरोपम, पणसीयं पचासी, परघुस्सासे-पराघात और उच्छ्वास नामकर्म का, पणिदि पंचेन्द्रिय जाति का, तसचउगे - त्रसचतुष्क का, बत्तीसं-बत्तीस, सुहविहगइ - शुभ विहायोगति, पुम -पुरुष वेद, सुभगतिग- सुभगत्रिक, उच्च-उच्चगोत्र, चउरंसे-- समचतुरस्रसंस्थान का। असुखगइ--अशुभ विहायोगति, जाइ -- एकेन्द्रिय आदि चतुरिन्द्रिय तक जाति, आगिइसंघयण-पहले के सिवाय पांच संस्थान और पांच संहनन, आहारनरयजोयदुगं-आहारकद्विक, नरकटिक, उद्योत द्विक, थिरसुमजस - स्थिर, शुभ, यशःकोति नाम, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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