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________________ पंचम कर्मग्रन्थ २१५. जन्म लेने से दूसरी बार के ६६ सागर पूर्ण होते हैं । इस प्रकार विजयादिक में जन्म लेने से १३२ सागर पूर्ण होते हैं । एक सौ त्रेसठ सागर इस प्रकार होते हैं कि नौवें ग्रैवेयक में इकतीस सागर की आयु भोगकर वहां से च्युत होकर मनुष्यगति में जन्म लेकर पूर्व की तरह विजयादिक में दो बार जाने से दो बार छियासठ सागर पूर्ण करने पर एक सौ तेसठ सागर पूर्ण होते हैं । एक सौ पचासी सागर होने के लिये इस प्रकार समझना चाहिए कि तमः प्रभा नामक छठे नरक में बाईस सागर की स्थिति पूर्ण कर उसके बाद नौवें ग्रैवेयक में इकतीस सागर की आयु भोगकर उसके बाद विजयादिक में दो बार छियासठ सागर पूरे करने से एक सौ पचासी सागर का अन्तराल होता है । इस प्रकार इकतालीस प्रकृतियां अधिक-से-अधिक इतने काल तक पंचेन्द्रिय जीव के बंध को प्राप्त नहीं होती हैं। अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल के जघन्य व उत्कृष्ट प्रमाण का विवेचन प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम उत्कृष्ट बंधकाल बतलाते कि -- पल्लतिगं सुरविउब्विदुगे-यानी देवद्विक (देवगति और देवानुपूर्वी) तथा वैक्रियद्विक (वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग) इन चार प्रकृतियों का बंध यदि बराबर होता रहे तो अधिक-से-अधिक तीन पल्य तक हो सकता है । इसका कारण यह है कि भोगभूमिज जीव जन्म से ही देवगति के योग्य इन चार प्रकृतियों को तीन पल्योपम काल तक बराबर बांधते हैं। क्योंकि भोगभूमिज जीवों के नरक, तिर्यंच और मनुष्यगति के योग्य नामकर्म की प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । इसलिए परिणामों में अन्तर पड़ने पर भी इन चार प्रकृतियों की किसी विरोधिनी प्रकृति का बंध नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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