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________________ पंचम कर्मग्रन्थ १६३ तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामी का कथन करने के बाद अब आहारकद्विक और देवायु के बंधस्वामी के बारे में कहते हैं कि - ' आहारदुगामराउ य पमत्तो' - आहारकद्विक और देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी प्रमत्तसंयत मुनि है। यहां प्रमत्तसंयत शब्द व्यर्थक है । आहारकद्विक आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग के उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रसंग में इसका अर्थ यह है कि अप्रमत्त गुणस्थान से च्युत हुआ प्रमत्तसंयत मुनि । क्योंकि इन दोनों प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिए उत्कृष्ट संक्लेश होना आवश्यक है और उनके बंधक प्रमत्त मुनि के उसी समय उत्कृष्ट संक्लेश होता है जब वह अप्रमत्त गुणस्थान से च्युत होकर छठे गुणस्थान में आता है । अतः उसके ही इन दो प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध जानना चाहिये । ' देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिये आहारकद्विक के उत्कृष्ट स्थितिबंध से विपरीत स्थिति है । आहारकद्विक के उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिये उत्कृष्ट संक्लेश की आवश्यकता है । यह उत्कृष्ट संक्लेश प्रमत्त मुनि के उसी समय होता है जब वह अप्रमत्त गुणस्थान से च्युत १ (क) तथा ' आहारकद्विक' आहारकशरीर आहारकाङ गोपाङ गलक्षणं 'पमुत्तु' त्ति प्रमत्तसंयतो अप्रमत्तभावान्निवर्तमान इति विशेषो दृश्यः, उत्कृष्टस्थितिकं बध्नाति । अशुभा हीयं स्थितिरित्युत्कृष्टसं क्लेशेनं वोत्कृष्टा बध्यते, तद्बन्धकश्च प्रमत्तयतिरप्रमत्तभावान्निवर्तमान एवोत्कृष्टसंक्लेशयुक्तो लभ्यते इतीत्थं विशिष्यते । - कर्मग्रन्थ टीका (ख) आहारकद्विकस्याप्रमत्तयतिः प्रमत्तताभिमुखः । - कर्मप्रकृति यशोविजयजी कृत टीका (ग) आहारकद्विकस्यापि योऽप्रमत्तसंयतः प्रमत्तभावाभिमुखः स तबंधकेषु सर्व संक्लिष्टः इत्युत्कृष्टं स्थितिबंधं करोति । -- पंचसंग्रह ५/६४ को टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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