SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ शतक होकर छठे प्रमत्त गुणस्थान में आता है,लेकिन देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के अभिमुख प्रमत्तसंयत मुनि के ही होता है । क्योंकि यह स्थिति शुभ है । अतः इसका बंध विशुद्ध दशा में ही होता है और यह विशुद्ध दशा अप्रमत्त भाव के अभिमुख प्रमत्तसंयत मुनि के ही होती है। ___ आहारकद्विक और देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध होने के उक्त कथनों का सारांश यह है कि आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन दो प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध प्रमत्त गुणस्थान के अभिमुख हुए अप्रमत्तसंयत को होता है। इसके बंधयोग्य अति संक्लिष्ट परिणाम उसी समय होते हैं तथा देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी भी अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती है किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रमत्त गुणस्थान में आयुबंध को प्रारंभ करके अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का आरोहण कर रहा हो। यानी आहारकद्विक का बंध सातवें गुणस्थान से छठे गुणस्थान की ओर अवरोहण करने वाले अप्रमत्तसंयत मुनि को और देवायु का बंध छठे गुणस्थान में प्रारम्भ करके सातवें गुणस्थान की ओर आरोहण करने वाले.मुनि को होता है।) सव्वाण ठिइ असुभा उक्कोसुक्कोससंकिलेसेण । इयरा उ विसोहीए सुरनरतिरिआउए मोत्तु। ___ ---पंचसंग्रह ५॥ ५ २ (क) आहारकशरीर तथा आहारकअंगोपांग, ए बे प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध प्रमत्तगुणठाणाने सन्मुख थयेलो एवो अप्रमत्त यति ते अप्रमत्त गुणठाणाने चरमबंधे बांधे । एना बंधक माहे एहिज अति सक्लिष्ट छ । तथा देवताना आयुनो उत्कृष्ट स्थितिबंधस्वामी अप्रमत्त गुणस्थानकवर्ती माधु जाणवो । पण एटलुविशेष जे प्रमत्त गुणस्थानके आयुबंध आरंभीने अप्रमत्ते चढतो साधु बांध । -पंचम कर्मग्रन्थ टबा (अगले पृष्ठ पर देखें) . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy