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________________ १६२ मनुष्य का ग्रहण किया तथा तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने से पहले जो मनुष्य नरकायु का बंध नहीं करता है वह तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने के वाद नरक में उत्पन्न नहीं होता है । अतः वैसे मनुष्य का ग्रहण किया गया जो तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने से पहले नरकायु बांध लेता है । कोई-कोई क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव ( राजा श्र ेणिक जैसे) सम्यक्त्व दशा में मरकर नरक में जा सकते हैं किन्तु विशुद्ध परिणामों के कारण वे जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध नहीं कर सकते हैं । अतः तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रकरण में मिथ्यात्व के अभिमुख अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य का ही ग्रहण किया है । तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध के संबन्ध में उक्त कथन का सारांश यह है कि यद्यपि चौथे से लेकर आठवें गुणस्थान तक तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है किन्तु उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिए उत्कृष्ट संक्लेश की आवश्यकता है और तीर्थंकर प्रकृति के बंधक मनुष्य को उत्कृष्ट संक्लेश उसी दशा में हो सकता है जब वह मिथ्यात्व के अभिमुख हो और ऐसा मनुष्य मिथ्यात्व के अभिमुख तभी होता है जब उसने तीर्थकर प्रकृति का बंध करने के पहले नरकायु का बंध कर लिया है । बद्धनरकायु अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य जब मिथ्यात्व के अभिमुख होता है, उसी समय में उसके तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्टं स्थितिबंध होता है । क्षायिक सम्यक्त्व सहित जो नरक में जाता है वह उससे विशुद्धतर है अतः उसका यहां ग्रहण नहीं किया गया है । शतक १ तथा चोक्तं शतकचूर्णी - ' तित्थयरनामस्स उक्कोसठिडं मणुस्सो अजओ वेयगसम्मद्दिट्ठी पुब्वं नरगबद्धाउगो नरगाभिनुहो मिच्छत्तं पडिवज्जिही इति अंतिम ठिईबन्धे वट्टमाणो बंधइ, तबंध गेसु अइसकिलिट्ठोत्ति काउं । जो सम्मत्तेणं खाइगेणं नरगं वच्चई सो तओ विसुद्धपरोत्ति का उतम्मि उक्कोसी न हवइत्ति ।' - पंचसंग्रह प्र० भाग, मलयगिरि टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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