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________________ पंचम कर्मग्रन्थ १५७ ___ मतान्तर का उल्लेख करके इसका स्पष्टीकरण नहीं किया है। संभवतः तथाविध परंपरा का अभाव हो जाने से विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया जा सका है।' पहले तिर्यंचायु और मनुष्यायु की जघन्य स्थिति क्षुद्रभव के बराबर बतलाई है, अतः अब दो गाथाओं में क्षुद्रभव का निरूपण करते हैं। सत्तरससमहिया किर इगाणुपाणु मि हुंति खुड्डभवा । सगतीससयत्तिहत्तर पाणू पुण इगमुहत्तंमि ॥४०॥ पणससि हस्सपणसय छत्तीसा इगमुहत्तखुड्डभवा । आवलियाणं दोसय छप्पन्ना एगखुड्डभवे ॥४१॥ __ शब्दार्थ -- सत्तरस-सत्रह, समहिया-कुछ अधिक, किरनिश्चय से, इगाणुपाणु मि--एक श्वासोच्छ्वास में, हुंति-होते हैं, खुडामवा--क्षुल्लक भव, सगतीससयतिहुत्तर-संतीस सौ तिहत्तर, पाणु - प्राण, श्वासोच्छ्वास, इगमुहुत्तमि --- एक मुहूर्त में । पणसट्ठिसहस्स - पैंसठ हजार, पणसय-पांच सो, छत्तीसछत्तीस, इगमुहुत्त-- एक मुहूर्त में, खुड्डभवा- क्ष द्रभव, आवलियाणं- आवलिका, दोसय--दो सौ, छप्पन्ना-- छप्पन, एगखुडडभवे- एक क्ष द्रभव में ।। गाथार्थ - एक श्वासोच्छ्वास में निश्चित रूप से कुछ अधिक सत्रह क्षुद्रभव और एक मुहूर्त में सैंतीस सौ तिहत्तर श्वासोच्छ्वास होते हैं । तथा१. पंचसंग्रह में भी उक्त गाथाओं की टीका में मतान्तर का उल्लेख करके विशद विवेचन नहीं किया है। तीर्थंकर नामकर्म का दस हजार वर्ष प्रमाण जघन्य स्थितिबंध पहले नरक में दस हजार वर्ष की आयुबंध सहित जाने वाले जीव की अपेक्षा घटता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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