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________________ १५८ एक मुहूर्त में पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस क्षुद्रभव होते हैं और एक क्षुद्रभव में दो सौ छप्पन आवली होती हैं । शतक विशेषार्थ - गाथा में क्षुद्र ( क्षुल्लक) भव का स्वरूप बतलाया है । सम्पूर्ण भवों में सब से छोटे भव को क्षुल्लक भव कहते हैं । यह भव निगोदिया जीव के होता है । क्योंकि निगोदिया जीव की स्थिति सब भवों को अपेक्षा अल्प होती है और वह भव मनुष्य व तिर्यच पर्याय में ही होता है । जिससे मनुष्य और तिर्यच आयु की जघन्य स्थिति क्षुल्लक भव प्रमाण बतलाई है । क्षुल्लक भव का परिमाण इस प्रकार समझना चाहिए कि जैन कालगणना के अनुसार असंख्यात समय की एक आवली होती है । संख्यात आवली का एक उच्छ्वास - निश्वास होता है । एक निरोग, स्वस्थ, निश्चिन्त, तरुण पुरुष के एकबार श्वास लेने और त्यागने के काल को एक उच्छ्वास काल या श्वासोच्छ्वास काल कहते हैं । सात श्वासोच्छ्वास काल का एक स्तोक होता है । सात स्तोक का एक लव तथा साढ़े अड़तीस लव की एक नाली या घटिका होती है । दो घटिका का एक मुहूर्त होता है । " १ कालो परमनिरुद्धो अविभज्जो तं तु जाण समयं तु । समया य असंखेज्जा हवइ हु उस्सासनिस्सासो ॥ उस्सासो निस्सासो यदोऽवि पात्ति भन्नए एक्को । पाणा य सत्त थोवा थोवावि य सत्त लवमाहु || अट्ठत्तीसं तु लवा अद्धलवो चेव नालिया होइ । Jain Education International - ज्योतिष्करण्डक ८, ६, १० काल के अत्यन्त सूक्ष्म अविभागी अश को समय कहते हैं । असंख्यात समय का एक उच्छ्वास- निश्वास होता है, उसे प्राण भी कहते हैं । सात प्राण का एक स्तोक, सात स्तोक का एक लव, साढ़े अड़तीस लव की एक नाली होती है । दो नाली का एक मुहूर्त होता है वे नालिया मुहुत्तो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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