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शतक
है तब उत्कृष्ट स्थिति में जघन्य अबाधा होती है। जब कोई मनुष्य एक पूर्व कोटि का तीसरा भाग शेष रहते परभव की जघन्य स्थिति बांधता है जो अन्तमुहूर्त प्रमाण हो सकती है, तब जघन्य स्थिति में उत्कृष्ट अबाधा होती है और जब कोई अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति शेष रहने पर परभव की अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति बांधता है तब जघन्य स्थिति में जघन्य अबाधा होती है। अतः आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति में भी जघन्य अबाधा हो सकती है और जघन्य स्थिति में भी उत्कृष्ट अबाधा हो सकती है। विशेष स्पष्टीकरण परिशिष्ट में किया गया है।
इस प्रकार से कर्मों की स्थिति की अबाधा का स्पष्टीकरण समझना चाहिये । अब दूसरी बात तीर्थंकर नामकर्म व आहारकद्वि क की जघन्य स्थितिबंध के मतान्तर पर विचार करते हैं ।
ग्रन्थकार ने पूर्व में तीर्थंकर और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियों को जघन्य स्थिति अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम बतलाई है। लेकिन कोई-कोई आचार्य इन तीनों की जघन्य स्थिति बतलाते हैं
सुरनारयाउयाणं दसवाससहस्स लघु सतित्थाणं ।' तीर्थंकर नामकर्म सहित देवायु, नरकायु की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है । यानी तीर्थंकर नामकर्म की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रमाण है । तथा
साए बारस हारगविग्धावरणाण किंचूण ।' साता वेदनीय की बारह मुहूर्त और आहारक, अंतराय, ज्ञानावरण व दर्शनावरण को कुछ कम मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति है।
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१. पंचसग्रह ५२४६
२. पंचसग्रह ५।४७
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