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पंचम कर्मग्रन्थ
आचार्यों के मत से तीर्थंकर नामकर्म की जघन्य स्थिति देवायु की जघन्य स्थिति के समान दस हजार वर्ष की है और आहारकद्विक की अन्तमुहूर्त प्रमाण है। विशेषार्थ-गाथा में दो बातों का कथन किया गया है। गाथा के पूर्वार्ध में सभी उत्तर प्रकृतियों का जघन्य अबाधाकाल और उत्तरार्ध में तीर्थंकर व आहारकद्विक की जघन्य स्थिति का मतान्तर बतलाया है।
जघन्य स्थितिबंध में जो अबाधाकाल होता है, उसे जघन्य अबाधा और उत्कृष्ट स्थितिबंध में जो अबाधाकाल होता है उसे उत्कृष्ट अबाधा कहते हैं। अतः जघन्य स्थितिबंध में सभी उत्तर प्रकृति के जघन्य स्थितिबंध का अबाधाकाल अन्तमुहूर्त प्रमाण बतलाया है-"सव्वाणवि लहुबंधे भिन्नमुहू अबाह ।” लेकिन यह नियम आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों के अबाधाकाल को बतलाने के लिए लागू होता है । क्योंकि उनकी अबाधा स्थिति के प्रतिभाग के अनुसार होती है । लेकिन आयुकर्म के बारे में प्रतिभाग की निश्चित निर्णयात्मक स्थिति नहीं है। आयुकर्म की तो उत्कृष्ट स्थिति में भी जघन्य अबाधा हो सकती है और जघन्य स्थिति में भी उत्कृष्ट अबाधा हो सकती है। इसीलिये आयुकर्म की अबाधा में चार विकल्प माने जाते हैं-(१) उत्कृष्ट स्थितिबंध में उत्कृष्ट अबाधा, (२) उत्कृष्ट स्थितिबंध में जघन्य अबाधा, (३) जघन्य स्थितिबंध में उत्कृष्ट अबाधा और (४) जघन्य स्थितिबंध में जघन्य अबाधा । इनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है कि जब कोई मनुष्य अपनी पूर्व कोटि की आयु में तीसरा भाग शेष रहने पर तेतीस सागर की आयु बांधता है तब उत्कृष्ट स्थिति में उत्कृष्ट अबाधा होती है और यदि अन्तमुहूर्त प्रमाण आयु शेष रहने पर तेतीस सागर की आयु बांधता
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