________________
पंचम कर्मग्रन्थ
१५३ गुणा तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय के लिये हजार का गुणा करना चाहिए। इसका जो गुणनफल प्राप्त हो वह उन-उन जीवों की उस-उस प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति होगी। .. (द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जो उनका उत्कृष्ट स्थितिबंध बतलाया है, उसमें से पल्य का संख्यातवां भाग कम कर देने पर उनका अपना-अपना जघन्य स्थितिबंध होता है।' इस प्रकार एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों के स्थितिबंध का प्रमाण समझना चाहिये।
कर्मग्रन्थ की तरह गो० कर्मकांड में भी एकेन्द्रिय आदि जीवों के स्थितिबंध का प्रमाण बतलाया है। उसकी कथन प्रणाली इस प्रकार है--
एयं पणकदि पण्णं सयं सहस्सं च मिच्छवरबंधो । इगविगलाणं अवरं पल्लासंखूणसंखूण ।।१४४।।
एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय चतुष्क (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय) जीवों के मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिबंध क्रमशः एक सागर, पच्चीस सागर, पचास सागर, सो सागर और एक हजार सागर प्रमाण है तथा उसका जघन्य स्थितिबंध एकेन्द्रिय के पल्य के असंख्यातवें भागहीन एक सागर प्रमाण है तथा विकलेन्द्रिय जीवों के पल्य के संख्यातवें भाग हीन अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है ।
जदि सत्तरिस्स एत्तियमेत्तं कि होदि तीसियादीणं । इदि संपाते सेसाणं इगिविगलेसु उभयठिवी ॥१४॥
यदि सत्तर कोडाकोड़ी सागर की स्थिति वाला मिथ्यात्व कर्म एकेन्द्रिय जीव एक सागर प्रमाण बांधता है तो तीस कोड़ाकोड़ी सागर आदि की स्थिति वाले बाकी कर्मों को एकेन्द्रिय जीव कितनी स्थिति प्रमाण बांध सकता है ? इस प्रकार राशिक विधि करने से एकेन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट स्थिति ३ सागर प्रमाण होती है, इस प्रकार दोनों स्थितियां राशिक के द्वारा निकल आती हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org