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शतक
के बंध योग्य नामकर्म की ५८ प्रकृतियों और दोनों गोत्रों की सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति आती है।
(एकेन्द्रिय के इस उत्कृष्ट स्थितिबंध में से पल्य का असंख्यातवां भाग कम कर देने पर एकेन्द्रिय जीव के जघन्य स्थितिबंध का प्रमाण होगा पलियासंखंसहीण लहुबंधो। अर्थात् जो विभिन्न प्रकृतियों की । सागर आदि उत्कृष्ट स्थितियां बतलाई हैं, उनमें से पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम कर देने पर एकेन्द्रिय जीव के लिए वही उस प्रकृति की जघन्य स्थिति हो जाती है।
इस प्रकार से एकेन्द्रिय की अपेक्षा से स्थितिबंध का परिमाण बतलाने के पश्चात अब विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के लिये उसका परिमाण बतलाते हैं।
(एकेन्द्रिय जीव के जो सागर आदि उत्कृष्ट स्थितिबंध बतलाया है, उसको पच्चीस से गुणा करने पर द्वीन्द्रिय का,पचास से गुणा करने पर त्रीन्द्रिय का, सौ से गुणा करने पर चतुरिन्द्रिय का और हजार से गुणा करने पर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का उत्कृष्ट स्थितिबंध का परिमाण होता है । इसका अर्थ यह है कि द्वीन्द्रिय आदि जीवों का स्थितिबंध एकेन्द्रिय जीव के स्थितिबंध की अपेक्षा पच्चीस, पचास गुणा आदि अधिक है । जैसे एकेन्द्रिय जीव के मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति एक सागर है तो द्वीन्द्रिय जीव के उसकी उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागर बंधती है । अन्य प्रकृतियों के लिये भी इसी अपेक्षा को समझ लेना चाहिये । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय के लिए जानना चाहिये कि एकेन्द्रिय जीव की मिथ्यात्व को उत्कृष्ट स्थिति एक सागर प्रमाण है तो उससे पचास गुणी यानी पचास सागर प्रमाण बंधती है। अन्य प्रकृतियों के स्थितिबंध के बारे में भी इसी नियय का उपयोग करना चाहिए । चतुरिन्द्रिय जीव के लिए एकेन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट स्थिति में सौ का
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