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शतक
साढे सत्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम तथा कृष्ण वर्ण और तिक्त रस की बीस कोडाकोड़ी सागरोपम है।
दस सुहविहगई उच्चे सुरदुग थिरछक्क पुरिसरइहासे । मिच्छे सत्तरि मणुदुगइत्थीसाएसु पन्नरस ॥३०॥
शब्दार्थ-दस-दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सुहविगइउच्चे-- शुभ विहायोगति और उच्चगोत्र, सुरदुग-देवद्विक, थिरछक्क - स्थिरषट्क, पुरिस -पुरुषवेद, रइहासे - रति और हास्य मोहनीय, मिच्छे - मिथ्यात्व की, सत्तरि-सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम, मणुदुगइत्थीसाएसु-मनुष्यद्विक, स्त्रीवेद और सातावेदनीय की, पन्नरस-पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरोपम ।
गाथार्थ-शुभ विहायोगति, उच्चगोत्र, देवद्विक, स्थिरषट्क, पुरुषवेद, रति और हास्य मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। मिथ्यात्व मोहनीय की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम तथा मनुष्यद्विक, स्त्रीवेद, सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरोपम की है। विशेषार्थ-गाथा में विशेषकर दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली तथा पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरोपम की स्थिति
१ यद्यपि वर्ण, गंध, रस और स्पर्श इस वर्णचतुष्क को उसके भेदों के बिना
ही बन्ध में ग्रहण किया गया है, अत: कर्मप्रकृति आदि में वर्णचतुष्क की बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति कही है। इसीलिये कर्मप्रकृति में वर्णचतुष्क के अवान्तर भेदों की स्थिति नहीं बतलाई है किन्तु पंचसंग्रह में बतलाई है----
सुक्किलसुरभीमहुराण दस उ तह सुभ चउण्ह फासाण । अड्ढा इज्जपवुड्ढी अंबिलहालिद्दपुव्वाण ॥२४०।।
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