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________________ पंचम कर्मग्रन्थ १११ __ नौ ध्रुवबंधिनी, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर या अस्थिर, शुभ या अशुम, आदेय, यशःकीर्ति या अयशःकीति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, प्रथम संस्थान, देवानुपूर्वी, वैक्रिय अंगोपांग, सुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, पराघात, तीर्थंकर, इन प्रकृति रूप देवगति और तीर्थंकर सहित उनतीस का बंधस्थान होता है। इस प्रकार से उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान छह होते हैं । इन स्थानों का बन्धक द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में तथा मनुष्यगति और देवगति में जन्म लेता है। २ द्वीन्द्रिये, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत उनतीस के चार बन्धस्थानों में उद्योत प्रकृति के मिलाने से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत तीस के चार बंधस्थान होते हैं । पर्याप्त मनुष्य सहित उनतीस के बन्धस्थान में तीर्थंकर प्रकृति के मिलाने से मनुष्यगति सहित तीस का बंधस्थान होता है। देवगति सहित उनतीस के बन्धस्थान में से तीर्थंकर प्रकृति घटाकर आहारकद्विक को मिलाने से देवगतियुत तीस का बंधस्थान होता है। इस प्रकार तीस प्रकृतिक बंधस्थान छह होते हैं। देवगति सहित उनतीस के बंधस्थान में आहारकद्विक के मिलाने से देवगति सहित इकतीस का बन्धस्थान होता है। एक प्रकृतिक बंधस्थान में केवल एक यशःकीर्ति का ही बन्ध होता है। इस प्रकार नामकर्म के आठ बंधस्थानों को बतलाकर अब इनमें भूयस्कार बन्ध आदि की संख्या बतलाते हैं । भूयस्कारादि बंध ____नामकर्म के बंधस्थान आठ हैं और उनमें भूयस्कार आदि बन्धों की संख्या बतलाने के लिये संकेत दिया है कि 'छस्सगअट्ठति बन्धा' यानी छह भूयस्कार, सात अल्पतर, आठ अवस्थित और तीन अवक्तव्य बन्ध होते हैं । जिनका विवरण इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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