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शतक
११० जाति, वैक्रिय शरीर, पहला संस्थान, देवानुपूर्वी, वैक्रिय अंगोपांग, सुस्वर, शुभ विहायोगति, उच्छ्वास और पराघात इन प्रकृति रूप देवगति सहित अट्ठाईस का बन्धस्थान होता है । इस स्थान का बन्धक मरकर देव होता है।
नरकगति की अपेक्षा अट्ठाईस का बंधस्थान-नौ ध्रुवबंधिनी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीति, नरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, हुण्डसंस्थान, नरकानुपूर्वी, (वैक्रिय अंगोपांग, 'दुःस्वर, अशुभ विहायोगति, उच्छ्वास
और पराघात, इन प्रकृति रूप नरकगतियोग्य अट्ठाईस का बन्धस्थान होता है।
(नौ ध्रुवबंधिनी तथा त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर या अस्थिर, शुभ अथवा अशुभ, दुर्भग, अनादेय, यशःकोति या अयशःकोति, तिथंचगति, द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, हुँण्ड संस्थान, तिर्यंचानुपूर्वी, सेवार्त संहनन, औदारिक अंगोपांग, दुःस्वर, अशुभ विहायोगति, उच्छ्वास, पराघात, इन प्रकृति रूप द्वीन्द्रिय पर्याप्तयुत उनतीस प्रकृति का बंधस्थान होता है। इसमें द्वीन्द्रिय के स्थान में त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय के स्थान में चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय के स्थान में पंचेन्द्रिय को मिलाने से क्रमशः त्रीन्द्रिययुत, चतुरिन्द्रिययुत और पंचेन्द्रिययुत उनतीस प्रकृति का बन्धस्थान होता है।
इस स्थान में यह विशेषता समझना चाहिये कि सुभग और दुर्भग, आदेय और अनादेय, सुस्वर और दुःस्वर, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, इन युगलों में से एक-एक प्रकृति का तथा छह संस्थानों और छह संहननों में से किसी एक संस्थान का और किसी एक संहनन का बंध होता है । इसमें तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी को घटाकर मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी के मिलाने से :पर्याप्त मनुष्य सहित उनतीस का बंधस्थान होता है।
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