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पंचम कर्मग्रन्थ
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उच्छ्वास और पराघात प्रकृतियों को मिलाने से एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित पच्चीस का बन्धस्थान होता है। उनमें से स्थावर, पर्याप्त । एकेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास और पराघात को घटाकर त्रस, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जाति, सेवा संहनन और औदारिक अंगोपांग के मिलाने से द्वीन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीस का स्थान होता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जाति के स्थान में त्रीन्द्रिय जाति के मिलाने से त्रीन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीस का स्थान, त्रीन्द्रिय जाति के स्थान में चतुरिन्द्रिय जाति के मिलाने से चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीस का स्थान और चतुरिन्द्रिय जाति के स्थान में पंचेन्द्रिय जाति के मिलाने से पंचेन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीस का स्थान होता है । इसमें तिर्यन्चगति के स्थान में मनुष्यगति के मिलाने से मनुष्य अपर्याप्त सहित पच्चीस का स्थान होता है ।
इस प्रकार से पच्चीस प्रकृति वाला बंधस्थान छह प्रकार का होता है और उसको बांधने वाले जीव एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में तथा द्वीन्द्रिय को आदि लेकर सभी अपर्याप्त तिर्यच और मनुष्यों में जन्म ले सकते
मनुष्यगति सहित पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में से त्रस, अपर्याप्त, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, सेवात संहनन और औदारिक अंगोपांग को घटाकर स्थावर, पर्याप्त, तिर्यन्चगति, एकेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास, पराघात और आतप तथा उद्योत में से किसी एक को मिलाने पर एकेन्द्रिय पर्याप्त युक्त छब्बीस का बन्धस्थान होता है । इस स्थान का बन्धक जीव एकेन्द्रिय पर्याप्तक में जन्म लेता है। 1. नामकर्म की नौ ध्रुवबन्धिनी, त्रस, वादर,.. पर्याप्त, प्रत्येक, ४ स्थिर और अस्थिर में से एक, शुभ और अशुभ में से एक, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति और अयशःकीति में से एक, देवगति, पंचेन्द्रिय
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