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________________ ११२ तेईस का बन्ध करके पच्चीस का बन्ध करना पहला भूयस्कार बन्ध, पच्चीस का बन्ध करके छब्बीस का बन्ध करना दूसरा भूयस्कार, छब्बीस का बन्ध करके अट्ठाईस का बंध करना तीसरा भूयस्कार, अट्ठाईस का बंध करके उनतीस का बंध करना चौथा भूयस्कार, उन तीस का बन्ध करके तीस का बन्ध करना पांचवा भूयस्कार, आहारकद्विक सहित तीस का बंध करके इकतीस का बन्ध करना छठा भूयस्कार बन्ध होता है । इस प्रकार छह भूयस्कार बन्ध हैं । शतक नौवें गुणस्थान में एक यशः कीर्ति का बन्ध करके वहाँ से च्युत होकर आठवें गुणस्थान में जब कोई जीव तीस अथवा इकतीस का बन्ध करता है तो वह पृथक् भूयस्कार नहीं गिना जाता है । क्योंकि उसमें भी तीस अथवा इकतीस का ही बन्ध करता है और यही बन्ध पांचवें और छठे भूयस्कार बन्धों में भी होता है, अतः उसे पृथक् नहीं गिना है । यद्यपि कर्मप्रकृति के सत्वाधिकार गाथा ५२ की टीका में उपाध्याय यशोविजयजी ने कर्मों के बन्धस्थानों और उनमें भूयस्कार आदि बन्धों के वर्णन के प्रसंग में नामकर्म के बन्धस्थानों में छह भूयस्कार बन्धों को बतलाकर सातवें भूयस्कार के संबन्ध में एक मत का उल्लेख किया है कि एक प्रकृति का बन्ध करके इकतीस का बन्ध करने पर सातवां भूयस्कार बन्ध होता है । जैसा कि शतक चूर्णि में लिखा है - एक्काओ वि एक्कतीसं जाइ त्ति भुओगारा सत्त -- एक को बांधकर इकतीस का बन्ध करता है, अतः नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों में सात भूयस्कार बन्ध होते हैं । इसका उत्तर यह है कि अट्ठाईस आदि बन्धस्थानों के भूयस्कारों को बतलाते हुए इकतीस के बन्ध रूप भूयस्कार का पहले ही ग्रहण कर लिया है । अतः एक की अपेक्षा से उसे अलग नहीं गिना जा सकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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