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पंचम कर्मग्रन्थ
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करने रूप जीव के स्वभाव को स्थिर रखता है। पुद्गल विपाकी प्रकृतियां जीव में ऐसी शक्ति पैदा करती हैं कि जिससे जीव अमुक प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करता है । तथापि क्षेत्रविपाकी आदि प्रकृतियां क्षेत्र आदि की मुख्यता, विशेषता से अपना फल देने के कारण क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी आदि कहलाती हैं। लेकिन कुछ प्रकृतियों के वर्गीकरण को लेकर जिज्ञासु के प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत किया जाता है। रति-अरति मोहनीय संबधी स्पष्टीकरण
रति और अरति मोहनीय कर्म जीवविपाकी है। लेकिन इस पर जिज्ञासु प्रश्न करता है कि उक्त दोनों प्रकृतियों का उदय पुद्गलों के आश्रय से होने के कारण पुद्गलविपाकी है। कंटकादि अनिष्ट पुद्गलों के संसर्ग से अरति का विपाकोदय और पुष्पमाला, चन्दन आदि इप्ट पदार्थों के संयोग से रति मोहनीय का उदय होता है। इस प्रकार पुद्गल के संबध से दोनों का उदय होने से उनको पुद्गलविपाकी मानना चाहिये । जीवविपाकी कहना योग्य नहीं है।
इसका समाधान यह है कि पुद्गल के संबंध के बिना भो इनका उदय होता हैं। क्योंकि कंटकादि के संबंध के बिना भी प्रिय, अप्रिय वस्तु के दर्शन-स्मरण आदि के द्वारा रति-अरति के विपाकोदय का अनुभव होता है। पुद्गलविपाकी तो उसे कहते हैं जिसका उदय पुद्गल के संबध के बिना होता ही नहीं है। लेकिन रति और अरति का उदय जैसे पुद्गलों के संसर्ग से होता है, वैसे ही उनके संसर्ग के बिना भी होता है । अतः रति और अरति को पुद्गल के संयोग के बिना भी
१ संपप्प जीयकाले उदयं काओ न जंति पगईओ।
एवमिणमोहहेउ आसज्ज विसे मयं नत्थि ।
___ - पंचसंग्रह ३।४६
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