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________________ ७८ नामकर्म के उदय से मस्तक आदि शुभ और अशुभ नामकर्म के उदय से पैर आदि अशुभ अवयव कहलाते हैं । शरीर नामकर्म के उदय से ग्रहीत पुद्गल शरीर रूप बनते हैं और अंगोपांग नाम-कर्म के द्वारा शरीर में अंग - उपांग का विभाग होता है । संस्थान नामकर्म के उदय से शरीर का आकार बनता है और संहनन नामकर्म के उदय से हड्डियों का बन्धनविशेष होता है । इसी प्रकार उपघात, साधारण, प्रत्येक आदि प्रकृतियां भी शरीर रूप परिणत पुद्गलों में अपना फल देती हैं । इसीलिये निर्माण आदि पराघात पर्यन्त छत्तीस प्रकृतियां पुद्गलविपाकी हैं । ' शतक इस प्रकार से क्षेत्र, जीव, भव, पुद्गल विपाकी प्रकृतियों को बतलाने के बाद अब कुछ प्रकृतियों के विपाक भेदों के बारे में विशेष स्पष्टीकरण करते हैं । यद्यपि सभी कर्मप्रकृतियां जीव में कर्तृत्व और भोक्तृत्व शक्ति होने के कारण किसी न किसी रूप में जीव में ही अपना फल देती हैं । जैसे आयुकर्म का भवधारण रूप विपाक जीव में ही होता है, क्योंकि आयुकर्म का उदय होने पर जीव को ही भव धारण करना पड़ता है और क्षेत्रविपाकी आनुपूर्वी कर्म भी श्रोणि के अनुसार गमन १ गो० कर्मकांड गा० ४७-४६ में भी विपाकी प्रकृतियों को गिनाया है । दोनों में इतना अंतर है कि कर्मकांड में पुद्गलविपाकी प्रकृतियों की संख्या ६२ बतलाई है और कर्मग्रन्थ में ३६ । इस अंतर का कारण यह है कि कर्मग्रन्थ में बंधन और संघात प्रकृतियों को छोड़ दिया है और वर्ण चतुष्क के सिर्फ मूल ४ भेद लिये हैं, उत्तर २० भेद नहीं लिये हैं । इस प्रकार १० +१६. २६ प्रकृतियों को कम करने से ६२-२६ प्रकृतियां शेष रहती हैं । - ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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