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________________ प्रस्तावना २ बळवान देहवाळा जाणे बे आखला. (एकबीजाने घडीमां) बेउ वळगता, वळता अने प्रहार करी पाछा छूटा पडता. बन्ने (घडीमां) आकाशमां उछळना, तो पाछा (वडीनां) जमीन पर टकराता. बन्ने आघा खपता, पाछा अन्योन्य पेंतरा रवी नजीक आवी अथडाता. अनेक उत्तम शस्त्रो धारण करनारा बेउ समर्थ योद्धाओना युद्ध राम-रावणना युद्धने पण जीती लीधु'(८.२१) _आ उपरांत सैन्य-प्रयाण (७.२२), रथनूपुर-नगरनुं वर्णन (८.२६) व. पण भाववाही छे. सनत्कुमारने नीरखवा नोकळेली नगरसुंदरीओ जुदा जुदा देवो साथे कुमारनी सरखामणो करे छे अने पछी एक पछी एक दरेक देवमां कईक खामी बतावी ए बधाथी सनत्कुमारनुं चहियातापणु दर्शावे छे ए वर्णन (८. ३१) कविनी काव्यसूझनो उत्तम नमूनो छे. रसः- विलासवई कहानो प्रधान रस शान्तरस छे कर्तानो हेतु संसारनी असारता अने वैराग्यनी महत्ता दर्शाववानो होई वारंवार जीवननी क्षणभंगुरतार्नु वर्णन अने वैराग्यनो उपदेश जोवा मळे छे. शांतनी सर्वोत्कृष्ट निष्पत्तिनुं उदाहरण अगियारमी संधिनुं बत्रीसमुं कडवक आखं छे. जेमा समग्र राजपाट छोडी मुनिजीवन अंगीकार करवा तत्पर थयेल सनत्कुमार निर्मळहृदयपूर्वक अने प्रशान्त चित्ते पंच परमेष्ठिनी स्तुति करे छ नमिमो अरहंतह, उत्तम-सत्तहं, नमिमो सिद्धहं गणहरहं । नमिमो उज्झायहं कय-सज्झायहं, नमिमो सव्वहं मुणिवरहं ।।.... जिणवरा सिद्ध-सूरीहिं संजुत्तया, थुणिय उज्झाय साहु य तिहिं गुत्तया। देंतु बोहिं समाहिं च सुहकारणा, भीम-भव-खुत्त-सत्ताण साहारणा ।। आ स्तोत्र एक स्वतंत्र काव्य जेवु ज अने भाववाही बन्युं छे. समग्र स्तोत्र शांतरसथी सभर छे. शांत पछी प्रमुख स्थान वीररसनुं छे. ठेर ठेर युद्धभेरीनी गर्जना संभळाय छे अने - फुट्ट ने बंभंडु उच्छलियउ तूराउ । नं रणदंसण-कज्जे हूउ देवहं हक्कारउ ॥ ७. २१ आवा युद्धनां दृश्यो वीररसनु आस्वादन करावे छे. वीर पछी शृंगारमा अहिं संभोग-शृंगार तथा विप्रलंभ-शृंगार बन्नेना निदर्शनो मळी रहे छे. प्रथम संधिमानुं नायक-नायिकानुं मिलन अने पछी अनेक वखतना विरहना वर्णनोमां आ बन्ने शृंगारन कविए निरूपण कर्यु छे. परंतु साधारण कविनो शृंगार मर्यादान उल्लंघन क्यांय पण करतो नथी. __ आ त्रण मुख्य रसो सिवाय करुण(मदनमंजरोनो विलाप-४.५), बीभत्स अने भयानक (सनत्कुमारनी विद्यासाधना प्रसंगे देखा देती विभीषिका मोना वर्णनमां-६. २४-२९), रौद्र . (७.१८) वगेरे थोडा-झाझा प्रमाणमां कविए यथास्थाने निष्पन्न कर्या छे. अलंकार-महाकाव्यनी परिपाटी मुजब विलासर्वई-कहामां पण अलंकारोनी विपुलता छे. शब्दालंकारोमां अंत्यानुप्रास तो अपभ्रंशमां अनिवार्य अंग बनी गयेल तेथी सर्वत्र छ ज. तदुपरांत वर्णानुप्रास, (३.१५,९.१) शब्दानुप्रास (यमक) (६.१४,७.२६ इत्यादि) अने श्लेष (४.८; १.१६ वगेरे ) अहिं जोवा मळे छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001874
Book TitleVilasvaikaha
Original Sutra AuthorSadharan
AuthorR M Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages310
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size17 MB
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