SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११.८] १७५ विलासवईकहा सगुणा वि लहहिं जणयावमाणु माणेण चयहिं निय-देह-ठाणु । पर-देसि कलंकह संघडंति कह कह वि जीय संसइ पडंति । पुणु पुणु पावहिं पिय-विप्पओउ मित्तहं विरहम्मि य गरुय-सोउ । पिय-विरह-विमोहिय अवि मरंति दुह-नासणु धम्मु न आयरंति । १० अह सयल-सोक्ख-संपुण्णु होइ रागंधु न सेवइ धम्मु तोइ । आरिय-देसम्मि वि कुलि विमलम्मि निरुवमं तु जइ संभवइ । तो वि गुणेहि समिद्धउ पुण्णेहि लद्धउ मणुय-जम्मु सो हारवइ ॥६॥ ता दुल्लहु पावेवि मणुय-जम्मु खयराहिव किज्जउ जिणह धम्मु । भो भो भव्यहो जसवम्म-राय वज्जेह सव्वे दारुण पमाय । जियलोइ असासउ सव्वु एउ चिंतह असार-संसारच्छेउ । पेच्छह धावंतु कयंत-हत्थि जसु पासह छुट्टेवउं न अस्थि । ५ जर-रक्खसि अंतरि संचरेइ अप्पणु सरिच्छ जा तणु करेइ । खणमेत्त-सोक्ख बहु-दुक्ख-जोय जाणह महुबिंदु-सरिच्छ भोय । दुक्ख चिय सव्वु भवटियाहं पर होइ सोक्खु मोक्खह गयाहं । आहरणु एक्कु एक्कु वि सुणेह मुह दुक्ख जेण मणुयह मुणेह । भुवणउरि वसंतउ पुरिसु कोइ दारिदिउ दुखिउ हुयउ सोइ । १० सोक्खई वंछंतउ नियमणेणं नीसरिउ कह वि देसंतरेणं । सो मग्ग-पणट्टउ सावय-तद्वउ तिसियउ माइण्हिय-नडिउ । नाणा-तरु-छन्नहिं अइ-वित्थिण्णहिं भीसण-घण-अडविहिं पडिउ ॥७॥ कत्थ वि अलंघ-गुरु-पव्वएहिं कत्थ वि भीसावण-वण-दवेहिं । बहु वंक-विवंकिय नइ वहति दीसंति गड्ड कत्थ वि महंति । कत्थ वि विस-तरुवर महुर-साय आमल-बहेड-हरडइ कसाय । वियरंति घोर तहिं वग्ध-सिंघ कत्थ वि घण-लय-जालेहिं अलंघ । ५ सो तत्थ जाइ ढंढोलएणं पावइ न मग्गु दिसि-भोलएणं । [६] ६ ला० सवणा वि १०. ला०- सोक्ख-संपुन्न १२. ला० गुणेहि [७] १ पु० पावेविणु ३.ला० जिय-लोए १६. पु. कहिं वि [८] २. पु० वंकविवंक नइ हवंति ५. ला-लय-जालहिं ५. पु० दिस-भोलएण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001874
Book TitleVilasvaikaha
Original Sutra AuthorSadharan
AuthorR M Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages310
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy