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________________ १६२ साहारणकविरड्या [१०.१४ वसुभूइ-अनिलवेयहं कहिउ एहु जाउ तत्थ तुम्हहिं सहिउ । आणेह सिग्घु सो महुं तणउ चिरयालह सोयानलु हणउ । अह परितुट्ट दाण-सम्माणेहि मज्जिय जिमिय परिहिया । तिणि वि तामलिन्तिपुरि पाविय गयण-विमाण-सोहिया ॥ १३ ॥ [१४] अह चल्लिय खयराहिवह पासि सो पुण विलासवइ-भवणे आसि । पडिहार निवेसिय तहि पविट्ठ दूरह वि पणामु करंतु दिछ । पेच्छेवि पिय-मित्तु सिणेह-सारु उद्विउ आसणह सणकुमारु । आणंद-जलोल्लिय-लोयणस्स तो कंठि लग्गु मंती-सुयस्स । परितुद्वउ खयराहिवु मणम्मि उववेसिउ संनिहि आसणम्मि । तो अमरगुत्तु पुच्छिउ कहेहि किं कुसल असेसहं मज्झ गेहि । सहुँ परियणेण अंबा-सहाउ किं कुसलेहिं अच्छइ अम्ह ताउ । तइयह नीसरियह रूसणेण पच्छइ किं अम्हहं कियउं तेण । पुणु सुणिवि वत्त परियणह पासि महु मुयह मुणेवि किं कियउं आसि । १० जीवंतहं अम्हहं तणिय केण तुम्हाण वत्त साहिय नरेण । सो भणइ देव सुणि सव्वरिय जइयहं रूसेविणु नीसरिय । तहिं नरवइ पच्छुत्तावियउ तुहुं सव्व-दिसिहि जोयावियउ । मालव-मगह-लाड-कन्नाडेहिं उत्तर-दिसिहि वाहियउ । कत्थ वि तुहुं न देव उवलद्धउ न य केण वि साहियउ ॥१४॥ एत्तहिं तामलिस्ति-पुरि हुंतउ तुम्ह परिग्गहु देव पहुत्तउ । तुम्हहं असुह-वत्त जं जाणिय मुच्छिय दो वि नरिंदु वि राणिय । चेयण पावेवि नरवइ वुन्नउ विविह-पलावेहिं देव परुन्नउ । सिढिलिय-केस मुद्ध विहाणिए सपरिवार निरु रोवइ राणिय । ५ हा मह पुत्त सुरूव सुलक्खण हा दक्खिण्णह खाणि वियक्खण । हा सुविणीय देव-गुरु-वच्छल हा सोंडीर पुत्त वज्जियच्छल । १४] २. ला० निवेइय ... दूरहो ३. ला पिच्छवि ६. पु० अम्ह गेहि ८ ला० तइयहुं ९. पु. मुयह भणेवि १२. ला० पच्छोत्तावियउ [१५] १. ला० एत्तहे ३. ला०-गलावेहिं नरवइ रुन्न 3 ४. ला०-केस सुठु विदा० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001874
Book TitleVilasvaikaha
Original Sutra AuthorSadharan
AuthorR M Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages310
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size17 MB
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