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कुमारपालप्रतिबोध-सङ्ग्रेपः । पिइ माय भाय सुकलत्तु पुत्तु, पहु परियणु मित्तु सिणेह-जुत्तु । पहवंतु न रक्खइ कोवि मरणु, विणु धम्मह अन्नु न अस्थि सरणु ॥ राया वि रंकु सयणो वि सत्तु, जणओ वि तणउ जणणि वि कलत्तु । इह होइ नडु व्व कुकम्मवंतु, संसार-रंगि बहु रूवु जंतु ॥ एक्कल्लउ पावइ जीवु जम्मु, एकल्लउ मरइ विढत्त-कम्मु । एक्कल्लउ परभवि सहइ दुक्खु, एक्कल्लउ धम्मिण लहइ मुक्खु ।। जहिं जीवह एउ वि अन्नु देहु, तहिं किं न अन्नु धणु सयणु गेहु । जं पुण अणन्नु तं एक-चित्तु, अज्जेसु नाणु दंसणु चरित्तु ।। वस-मंस-रुहिर-चम्मऽट्ठि-बद्ध, नव-छिड्डु-झरंत-मलावणद्ध ।। असुइ-स्सरूव-नर-थी-सरीर, सुइ बुद्धि कहवि मा कुणसु धीर ।। मिच्छत्त-जोग-अविरइ-पमाय, मय-कोह-लोह-माया-कसाय । पावासव सव्वि इमे मुणेहि, जइ महसि मोक्खु ता संवरेहि ।। जह मंदिरि रेणु तलाइ वारि, पविसइ न किंचि ढकिय दुवारि । पिहियासवि जीवि तहा न पावु, इय जिणिहि कहिउ संवरु पहावु ॥ परवसु अन्नाणु जं दुहु सहेइ, तं जीयु कम्मु तणु निजरेइ । जो सहइ सवसु पुण नाणवंतु, निजरइ जिइंदिउ सो अणंतु ।। जहिं जम्मणु मरणु न जीवि पत्तु, तं नत्थि ठाणु वालग्ग-मत्तु । उड़ा-हो-चउदस-रज-लोगि, इय चिंतसु निच्चु सुओवओगि । सुह-कम्म-निओगिण कहवि लद्भु, बहु पावु करेविणु पुण विरुद्ध । जलनिहि-चुय-रयणु व दुलह बोहि, इय मुणिवि पमत्तु म जीव होहि ॥ धम्मो त्ति कहंति जि पावु पाव, ते कुगुरु मुणसु निद्दय-सहाव । पइ पुन्निहि दुल्लहु सुगुरु-पत्तु, तं वजसु मा तुहु विसय-सत्तु ।। इय बारह भावण सुणिवि राउ, मणमज्झि वियंभिय भव- विराउ । रज्जु वि कुणंतु चिंतइ इमाउ, परिहरिवि कुगइ-कारणु पमाउ ॥
इय सोमप्पह-कहिए कुमार-निव-हेमचंद-पडिबद्धे । जिणधम्म-प्पडिबोहे पत्थावो वण्णिओ तइओ॥ इत्याचार्यश्रीसोमप्रभविरचिते कुमारपालप्रतिबोधे तृतीयः प्रस्तावः ॥
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