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द्वादशवतोपदेशः ।
१ प्राणातिपात
विरत्युप
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अथ चतुर्थः प्रस्तावः ।
अह वागरियं गुरुणा जीव दयं धम्ममिच्छमाणेण । सिव-मंदिर- निस्सेणी विरई पुरिसेण कायव्वा ॥ सव्वेंदिय-वसगाणं समत्त - पावासवाऽनियत्ताणं । जं अविरयाण जीवाण कहवि न वट्टइ जीव-दया ||
( जं अविरयाण कहमवि वट्टइ सम्मं न जीव दया || पाठान्तरम् 1 ) जइ कवि सव्व-विरई मुणि धम्म-सरूत्रमक्खमो काउं ।
ता देओवि विर गिहत्थ-धम्मोचियं कुजा ॥ पुव्व-परिक्कम्मिय-चित्त- कम्म- जुग्गा जहा भवे भित्ती । तह विहिय- देस - विरई काउमलं सव्व-विरई पि ॥ भणियं च
२ मृषावादविर त्युपदेशः ।
तत्र
एसा विदेस-विरई सेविज्जइ सव्व-विरइ-कज्जेण । पायमिमीए परिकम्मियाण इयरा थिरा होइ ॥ पंच उ अणु-व्वयाई गुण-व्वयाई हवंति तिन्नेव । सिक्खा वयाइँ चत्तारि देस - विरई दुवालसहा ॥
संकम्प - पुव्वयं जं तसाण जीवाण निरवराहाण | दुहितविण रक्खणमणुव्वयं बिंति तं पढमं ॥ चिर-जीवी वर - रूवो नीरोगो सयल-लोग-मण- इट्ठो । सो होइ सुगइ-गामी सिवो व्व जो रक्खए जीवे ॥
( अत्र शिवकथानकमनुसन्धेयम् )
जं गो-भू- कन्ना - कूडसक्खि- नासापहार- अलियरस । दुविह-तिविहेण वज्जणमणुब्वयं बिंति तं बीयं ॥ भुयगो व्व अलियवाई होइ अवीसास-भायणं भुवणे । पावइ अकित्ति - पसरं जणयाण वि जणइ संतावं || सण फुरइ कित्ती सच्चेण जणम्मि होइ वीसासो । सग्गाऽपवग्ग-सह-संपयाउ जायंति सच्चेण ॥ कुरुते यो मृषावादविरतिं सत्यवाग्वतः । मकरध्वजवद्भद्रमुभयत्रापि सोऽश्नुते ||
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पृ० ३२१.
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