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कुमारपालप्रतिबोध-सङ्केपः। जो उण साहेज भत्त-पाण-वर-वत्थ-पुत्थयाईहिं । कुणइ पढंताणं सो वि नाण दाणं पयट्टेइ ।। नाणमिणं दिताणं गिण्हताणं च मुक्ख-परदारं । केवल-सिरी सयं चिय नराण वच्छत्थले लुढइ ॥ सम्मं नाणेण वियाणिऊण एगिदियाइए जीवे । तेसिं तिविहं तिविहेण रक्खणं अभय-दाणमिणं ॥ जीवाणमभय-दाणं जो देइ दया-वरो नरो निचं । तस्सेह जीवलोए कत्तो वि भयं न संभवइ ।। जं नव-कोडी-सुद्धं दिजइ धम्मिय-जणस्स अविरुद्धं । धम्मोवग्गह-हेउं धम्मोवटुंभ-दाणमिणं ॥ तं असण-पाण-ओसह-सयणा-ऽऽसण-वसहि-वत्थ-पत्ताई । दायव्वं बुद्धि-मया भवन्नवं तरिउकामेण ॥ तं दायग-गाहग काल-भाव-सुद्धीहिं चउहिं संजुत्तं । निव्वाण-सुक्ख-कारणमणंत-नाणीहिं पन्नत्तं ॥ जो देइ निजरत्थी नाणी सद्धा-जुओ निरासंसो । मय-मुक्को जुग्गं जइ-जणस्स सो दायगो सुद्धो । जो देइ धण-खेत्ताई जइ-जणाणुचियमेअ-विवरीओ। सो अप्पाणं तह गाहगं च पाडेइ संसारे ॥ जो चत्त-सव्व-संगो गुत्तो विजिइंदिओ जिय-कसाओ। सज्झाय-ज्झाण-निरओ साहू सो गाहगो सुद्धो ॥ कम्म-लहुत्तणेण सो अप्पाणं परं च तारेइ । कम्म-गुरू अतरंतो सयं पि कह तारए अन्नं ॥ पुव्वुत्त-गुण-विउत्ताण जं धणं दिज्जए कु-पत्ताण । तं खलु धुव्वइ वत्थं रुहिरेणं चिय रुहिर-लित्तं ॥ दिन्नं सुहं पि दाणं होइ कु-पत्तंमि असुह-फलमेव । सप्पस्स जहा दिन्नं खीरं पि विसत्तणमुवेइ ॥ तुच्छं पि सु-पत्तंमि उ दाणं नियमेण सुह-फलं होइ । जह गावीए दिन्न तिणं पि खीरत्तणमुवेइ ॥ दिनेण जेण जइया जइ-जण-देहस्स होइ उवयारो । भत्तीए तम्मि काले जं दिजः काल-सुद्धं तं ॥ अपाणं मन्नंतो कयत्थमेगंत-निजरा-हेउं । जं दाणमणासंसं देइ नरो भाव-सुद्धं तं ॥ महया वि हु जसणं बाणो आसन्न-लक्खमहि गिच्च ।
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