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कुमारपालप्रतिबोध-सङ्केपः । राइमई परिणेउं सो चलिओ रहवरारूढो ॥ करि-तुरय-रहारूढेहिं कण्ह-पमुहेहिं पवर-सयणेहिं । सहिओ समागओ उग्गसेण-निव-मंदिरासन्नं ॥ सोऊण करुण-सहं जा दिहिं देइ तत्थ ता नियइ । रुद्धे पसु-सस-सूअर-उरब्भ-हरिणाइणो जीवे ॥ तस्सद्द-जग्गिय-दओ किमिमे रुद्ध त्ति पुच्छए कुमरो। तो सारहिणा भणियं-कुमार ! सुण कारणं एत्थ ॥ हणिउं इमे वराए इमाण मंसेण भोयणं दाही। तुज्झ विवाहे वेवाहियाण सिरि-उग्गसेण-निवो ॥ तो भणियं कुमरेणं विद्धी ! परिणयणमेरिसं जत्थ । भव-कारागार-पवेस-कारणं कीरए पावं ॥ भोगे भुयंग-भोगे व्व भीसणे दूरओ लहुं मुत्तुं । संसार-सागरुत्तरण-संकमं संजमं काहं ॥ तो वञ्जरियं इमिणा इत्तो सारहि ! रहं नियत्तेसु । चालेसु मंदिरं पइ तेणावि तहेव तं विहियं ॥ दह्र कुमरमुर्वितं रविं व नलिणी विसट्ट-मुह-कमला । जा आसि पुव्वमिहि तु पिच्छिउं तं नियत्तं सा ॥ राइमई खेय-परा परसु-नियत्त व्व कप्प-रुक्ख-लया। मुच्छा-निमीलियच्छी सहस त्ति महीयले पडिया ॥ सत्थी-कया सहीहिं बाह-जलाविल-विलोयणा भणइ । हा ! नाह ! किमवरद्धं मए जमेवं नियत्तो सि जइ वि तुमए विमुक्का अहं अहना तहा वि मह नाह !। तुह चलण च्चिय सरणं ति निच्छिउं सा ठिया बाला ॥ दाऊण वच्छरं दाणमुज्जयंते पवन-चारित्तो । चउ-पन्नास-दिणंते लहइ पहू केवलं नाणं ॥ तो नगरागर-गामाइएसुं पडिबोहिऊण भविय-जणं । सो वास-सहस्साऊ इहेव अयले गओ मुक्खं ॥ रन्ना भणियं भयवं ! अज वि तक्काल-संभवं किमिमं । चिठ्ठइ दसार-मंडव-पमुहं तो जंपियं गुरुणा ॥ तक्काल-संभवं जं तं न इमं किं तु थेव-काल-भवं । तमिमं पुण जेण कयं कहेमि तं तुज्झ नर-नाह ! ॥
गुरु-नागहत्थि-सीसो बालो वि अ-बाल-मइ-गुणो सुकई । कइया वि कंजियं घेत्तु-मागओ कहइ गुरु-पुरओ॥
पृष्ठ १७८.
पादलिप्तसूरिवर्णनम्
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