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प्रस्तावः]
स्थूलिभद्र-कथा । सो पेच्छंतह तीइ तमु खित्तु खालि अपसत्थि ॥ ९१ ॥ समणु दुम्मणु भणइ तो एउ,
बहु मुल्लु कंबलरयणु कीस कोसि ! पइ क्खालि खित्तउ,
देसंतरि परिभमिवि
मई महंत-दुक्खेण पत्तउं, कोस भणइ महापुरिस! तुहं कंबलु सोएसि । जं दुल्लहु संजम-खणु हारिस तं न मुणेसि ॥ ९२॥ जं परीसह सहिवि बावीस,
पंचिंदियवसि करिवि धरिवि जोगु चलु मणु निरुभिवि,
दुन्निग्गह-कोह-मय
माय-लोभ-मत्सरु निरंभिवि, पंचमहव्वयभरु वहवि पई संचिउ चारित्तु । तं आरामु व हुअवहिण मण-खोहेण पलित्तु ॥ ९३ ॥ जाउ वासवधणु व दुग्गिज्झ,
किंपागु व मुह-महुर विसहर व्व विस्सास-वजिअ,
महर व्व मइ-मोहकर
गिरिणइ व्व नीयाणुलग्गिअ, तहं वेसहं पत्थण-घणिण किं व भंजसि तव-नाव । भव-सायर-मजंत-जण-तारण-पयड-पहाव ॥ ९४ ॥ इअ कोसा-उवएसामय-रसुच्छिन्न-मयण-मुच्छेण । मुणिणा भणियं भद्दे ! तुह वयणं साहु साहु त्ति ॥९५॥ मिच्छामि दुक्कडं तं अबंभ-विसयम्मि जं तुम वुत्ता। सा भणइ तुमं धन्नो जेण मणं ठावित्रं मग्गे ॥ ९६ ॥
वित्ति पाउसि गयउ गुरु-पासि, कय-पाय-पणमणु समणु
मुणिवि सव्वु नाणेण सूरिहि, निन्भच्छिउ तोभ
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