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कुमारपालप्रतिबोधे
थूलभद्दु गुण-सलिल-पूरिहि, जो पहु ! सित्तउ मह हियइ मच्छर-तरु संजाउ । तसु मई संपइ कुसुम भरु दिट्ठउ दुहु विवाउ ॥ ९७ ॥ जइ वि मारिस कुणइ तवु तिव्वु, निम्महि अवम्मह मयह
तह वि थूलभद्दह न तुल्लउ, जा कोस कुसलिकमण
अणरत्त पत्थेइ भुल्लर, कसणवन्नु उपयइ नहि भंजइ जइ वि अवीदु । तह विदुरेह हरेह न हु पावइ गोवरखीड ॥ ९८ ॥ रन्ना दिन्ना रहियस्स सा थुणइ थूलभद्दमचत्थं । सो तीइ रंजणत्थं निय- विन्नाणं पयासेइ ॥ ९९ ॥ फुलिय अपूड तेण पिच्छेवि, वायायणसंठिय पक्खिन्तु बाणु सो खुत्तु बचिहि, तसु पुंखित्तउ अवभाव, सुवि अवरु धम्म सरकयम्मिहि,
धरिवि सहत्थिण कप्परि वि उवरि खुरु-प्पसरेण । अपिय कोसह संगहिवि अम्बय लुम्बि करेण ॥ १०० ॥ कोसा नच सिडत्थ - रासि सिहरत्थ- सूई - अग्गमि । रहिओ सिरं धुणंतो विन्नाणं वन्नए तीए ॥ १०० ॥ सा पपइ भो ! महापुरिस !, जं अम्बय लुम्बि पड़
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खुडिय ठिइण इह तन्न दुक्करु, जं सरिसव - सूइ - सिरि नच्चियऽम्हि तंपि हु न दुक्करु,
तं दुक्करु जं पमय-वणि वसियउ चाउम्मासु ।
थूलभद्दु चारित्तनिहि निहणिय विसय पिवासु ॥ १०१ ॥ मह सन्निहाणि चउमास वसिउ,
जं तह विन विसय- सुहेहि रसिउ ।
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