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कुमारपालप्रतिबोधे
भावेt महिल दुग्गइ निआणु ॥ ७४ ॥ सुंदरिम - विणिज्जिय- तरुण- कमलु, जं एअहि पिच्छहि चलण-जुअलु । तुहं तेण पल्लिउ जीव रड्डु, पाविहिसि दुरुत्तर- निरय-गड्डु ॥ ७५ ॥ जं कलिय - खंभ-सुंदेर-चोरु, तुहुं एअहि जच्च सुवन्न- गोरु | सरलोरु-दंड जुग सच्चवेहि,
तं नरय-भवण- तोरणु मुणेहि ॥ ७६ ॥ जइ एअहि पीण नियंवि सुडु,
भव-चारय-ठिउ तुहुं जीव मुहु । ता दाविअ विविह - विडंबणाउ,
दुसहाउ सहिस्ससि जायणाउ ॥ ७७ ॥ परिहरिवि जीव ! जिण धम्म- मग्गु,
जइ एअहि नाहि - दहम्मि मग्गु । ता नूण अणुत्तर - सुक्ख पसरु,
पाविहिसि नेअ निव्वाण-नयरु ॥ ७८ ॥ जह एअहि तुंग-थण-स्थलेहिं,
विसमम्मिहि अइघणचक्कलेहिं । पक्वलिउ कह वि भवरन्नु भीमु,
लंघिहिसि जीव ! ता न हु असीमु ॥ ७९ ॥ जइ एअहि भुअ-पासेहि बन्धु, तुहुं काहिसि जीव ! असचसंधु । ता मोह दुरुत्तर- गुत्ति-छूदु,
चिरकालु वसिस्ससि जीव ! मृदु ॥ ८० ॥ जो एअहि घण-कुंतल - कलावु, सो सप्पसमूहु महत्पभावु । मह धम्म- ज्झाण-निह-गहण - विग्घु, संजइ एउ चिंतेसु सिग्घु ॥ ८१ ॥ इअ निश्चल-चित्तह, पसम- पवित्तह,
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