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प्रस्तावः ]
स्थूलिभद्र-कथा । अह पासि पत्तउ गुरुहु
थूलभदु संभूअविजयह, पडिवजइ नियम-भरु
धवल-कित्ति-पंडुरिय-ति-जयह, सिरिउ वि कोसहि निच्चु घरि भाइ सिणेहिण जाइ । वररुह रत्तउ कोस-लहु-बहिणिहिं उवकोसाइ॥६०॥
वाम-करयल-कलिय-मुह-कमल,
सिंगार-परिमुक्कु तणु बाह-सलिल-संसित्त-थणहर,
विरहग्गि-संतत्त-मण
दीह-सास-परिसोसियाहर, थूलभदु-नामुच्चरण-गुण-कित्तण-कयतोस। पुरिसंतर-संगम-विमुह कह वि गमइ दिण कोस ॥ ६१॥ निअइ सिरिअउ छिद्द वररुइहि, तो कोस-सम्मुहु भणइ
एअ हेउ पिउ मरणु अम्हहिं, संपत्तु बंधव-विरह
तह विउगु दइएण तुम्हिहि, ता वररुइ पाएसु सुर तीइ वि भइणी वुत्त । जं तुहं मत्त अमत्तु इहु एरिस जोड न जुत्त ॥ ६२॥ तो बह-जुत्तीहि बुहो तीए भणिओ अणिच्छमाणो वि। चंदपहं पियइ सुरं दुई ति जहा जणो मुणइ ॥ ६३ ॥
कहिउ कोसहिं एउ सिरिअस्स, ___ अह अन्नदिणि निवु भणइ सिरिअ ! जणउ तुह आसि मह हिउ, __ सो जंपइ सच्चु एहु
किं तु मत्तवालिण विणासिउ, राउ पयंपइ किं पिअइ दिअवरु वररुइ मज्जु । सिरिउ भणइ संदेहु जइ ता पिच्छिज्जउ अज्जु ॥ ६४ ॥
ताव सिरिइणि फुल्लवड्डु वुत्तु,
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