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[पञ्चमः
कुमारपालप्रतिबोधे संपाइवि अप्पह पाव-जोगु। दुव्वार-दुसह-दुह-लक्ख-रूवि,
गंतव्वु जीव नरयंध-कूवि ॥ ५४॥ महु महु रुचए वि निवाहिगारु,
पेरंत विडंबण-दुक्ख-सारु । करि जीव ! धम्मु वन्जिवि पमाउ,
जिम्ब नरइ न पावहि पञ्चवाउ॥ ५५॥ परिहरिवि सव्व सावज-कम्मु, __ जो जीवु न जुव्वणि कुणइ धम्मु ।
सो मरण-यालि परिमलइ हत्थु, ___ गुणि तुइ जिम्व धाणुक्कु एत्थ ॥५६॥ इय विसय-विरत्तउ, पसम-पसत्तउ, । - थूलभदु संविग्गमणु। सिव-सुक्ख-कयायरु, भव-भय-कायरु,
महइ चित्ति दुच्चर चरणु ॥ ५७ ॥ पंच मुट्ठिहिं केस लुंचेवि,
पाउरिअ कंबल रयणु छिदिऊण रयहरणु निम्मिवि,
निवह पासि गंतॄण
तुह धम्म-लाहु होउ त्ति जंपिवि, नरवइ ! चिंतिउं एउ मई थूलभद्दु पभणेइ । राइण वुत्तु सुचिंतिअसं अह सो पुरह चलेहि ॥ ५८ ॥
नंदु जंपइ पेच्छ कवडेण,
गणियाइ पविसइ भवणि किं नव ? त्ति आयास-तल-गउ,
जा नियइ ता सो वि
तेण कुहिय-मयगमग्गेण निग्गउ, नित वि संतउ जेण जणु सेसउ मुहुई ठएइ । भयवं विसय-विरत्त-मणु तो नरवर जंपेइ ॥ ५९॥
ठविउ सिरिअउ निविण मंति त्ति
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