________________
४४९
प्रस्तावः ]
स्थूलिभद्र-कथा। दिओ वररुह तेण तओ तहिं दीणार ठवंतु ॥ ३६॥
ते वि अप्पिय तेण आणेवि, मंतिस्स गोसग्गि गओ
सपरिवारु तहिं नंदु नरवह, - तो गंग वररुइ थुणइ
जंतु-हत्थ-पाएहिं जोवइ, तत्थ न किंचि वि सो लहइ होइ विसन्न मणेण । ते नंदह दीणार तओ दंसिय सयडालेण ॥ ३७॥ कहिउ सयलु वि संझवुत्तंतु, तो जाओ वररुइ विमणु
पुण वि मंति-छिदाई मग्गइ, ओलग्गइ मंति-घर
दासी सा वि घरवत्त संपइ, तहिं किजइ भोअणु-निवह सिरियय परिणयत्थु । तह पक्खर-सन्नाह-गुड-असि-पमुहाउह-सत्थु ॥ ३८॥ इय मुणिय दासि-वुत्तं चिंतइ चित्तम्मि वररुई हिट्ठो। पत्तो मए इयाणिं मंतिस्स विणासणोवाओ ॥ ३९॥
दवि लहुअ डिंभरूवाण,
सो पाढइ कोवि न हु मुणइ एउजं मंति करिसइ,
मारिविणु नंदु निवु
नंदरजि सिरियओ ठवेसइ, तिग-चच्चर-चउहइहि एउ पढ़तई ताई। नंदिण बाहिं निग्गयण अन्नहिं दिअहिं सुआइं॥४०॥
पुरिसु पेसिवि निवइ सवियक्कु,
जोआवइ मंतिघरु कहिउ तेण किजंत आउहु,
ता मंतीहि पणमिअह
कुविओ नंदु जोअइ न सम्मुहु, घरि गउ मंति भणेइ तउ सिरिया ! जइ महु पुत्तु ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org