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कुमारपालप्रतिबोधे
मंति भणइ पर कव्व-चरण पढइ तेण सलहेमि ॥ ३१ ॥ नंदु जंपइ पढइ पर कव,
कह एस वररुइ सुकइ कहइ मंति मह धूय सत्त वि,
एयाई कब्वाई
पहु ! पढई बालाउ हुंत वि, तत्थ तुम्ह नरनाह ! जइ मणि वहइ संदेहु | ताउ पढंति य कोउगिण ता तुम्हे निस्रुणे ॥ ३२ ॥ एक्केण दोहिं तीहिं चउहिं पंचहिं छहिं य सत्तेहिं । वारेहिं धरंति का परपढियं मंति-धूयाओ ॥ ३३ ॥ जवणियंतरि ताउ ठवियाउ,
तो वररुइ आगइउ
थुइ नंदु तं ताउ निसुणहि, चक्कम्मि तम्मिय कमिण कव्व सव्व सव्वाउ पभणहिं,
तो नरनाहिण वररुइण कुविऊण वारु निसिडु | वररुइ ताव विलक्खमण उलग्गइ सुरसिंधु ॥ ३४ ॥ विविवि संझिहिं सलिल दिणार, गोसग्गि सुरसरि थुणइ हाइ जंत-संचारु पाइण, उच्छलिवि ते विवररुइहिं
चsहिं हत्थि तेण घाइण, लोउ परंपइ वररुह गंग पसन्निय देइ |
मुणिवि नंदु वृत्तंतु इहु सयडालस्स कहे || ३५ ॥ सो पर्यपइ गंग जइ देइ, दोणार पेच्छं यह
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मह इमस्स तो देइ निच्छिउ, संझाइ तो सिक्खवि
बिं पुरिसु तत्थ मंतिण विसज्जिउ,
सो चिवि पच्छ ठिओ जा अच्छइ पेच्छंतु ।
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