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प्रस्तावः ]
स्थूलिभद्र-कथा । तो समुग्गउ मयण-नरनाह, अहिसेय-मंगल-कलसु
दिसि-पुरंधि-आयरिसमंडलु, नह-लच्छि-चंदण-तिलओ
रयणि रमणि-ससि-कंत-कुंडलु, सव्व-कला-संपन्नु रसिय-जण-संतोसु कुणतु । अमयमयइ कर-फंसि-सुहि तहि कुमुइणि वियसावंतु ॥ २४ ॥
भरह-भासिय-भाव-संवडु,
पारडु संगीउ तहिं कोसवेस नचिय वियक्वणि,
रंजिय-मणु घणु दविणु
थूलभद्दु तसु देइ तक्षणि, तयणंतर अणुरत्तमण मयणपल्लंकि निसन्न । माणिय-मयण-विलास-सुह दुन्नि वि निद्द पवन्न ॥ २५॥ इय तत्थ थूलभद्दो पिउ-संपाडिय-समग्ग-भोगंगो। परिचत्त-सेस-कजो बारस-वरिसाई संवसह ॥ २६ ॥ अह तत्थ वसइ विप्पो बहु-सत्थ-वियपणो वररुइ त्ति । अट्टत्तर-वित्त-सएणं थुणइ निचं पि सो नंदं ॥ २७ ॥ तह वि न नंदो से देह किं पि पिच्छेइ किं तु मंति-मुहं । मिच्छत्तं ति न मंती वि तस्स कव्वाई वन्नेइ ॥२८॥
ओलग्गिया बुहेणं मंति-पिया भगइ किं कुणसि कहूँ । भणइ बुहो भण मंतिं जह मह कव्वाइं वनेइ ॥ २९ ॥ तीए भणिओ मंती वनइ कव्वाइं सुद्द पढइ त्ति । तो वियरइ अझुत्तर-दीणार-सयं बुहस्स नियो ॥ ३०॥
तो विचिंतइ मंति सगडालु, निव-कोसु निट्ठिउ सयलु
अन्नदिअहि विनवइ नरवरू, एयस्स किं देह पहु !
दिवसि दिवसि इत्तिउ धणुक्करु, सो जंपइ तइ वन्नियओ तिणि एयह धणु देमि ।
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