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प्रस्तावः ]
- आर्य-खपुटाचार्य-कथा । साहहि जिओ वाए सो अधिईए मओ संतो॥ नामेण वड्डुकरओ गुडसत्थे तत्थ वंतरो जाओ। तत्थ न देइ मुणीणं वसिउं सो विहिय-उवसग्गो ॥ तस्सोवसम-निमित्तं गुरुणो तत्थागया दिवस-विगमे । पुर-मज्झे वसहीए पवित्रं साहुणो सव्वे ॥ ठविउं कन्नेसु उवाहणाउ जावस्स अग्गओ सुत्ता। देवचओ पहाए समागओ ते तहा दटुं॥ लोयस्स कहइ लोओ समागओ उट्ठसु त्ति सो भणइ । उहंति न गुरुणो पुण गुरूण अवणेइ पावरणं ॥ तं जत्थ जत्थ अवणेइ पेच्छए तत्थ तत्थ अहट्टाणं । रन्नो निवेइयमिणं तेणाइट्ट हणह एयं॥ तो आढत्ता गुरुणो हणि लोएण कट्ठलट्ठीहि । लग्गंति ते पहारा रन्नो अंतेउरीणंगे ॥ हा ! को वि अदिट्ठो पहणइ ति अम्हे ताओ विलवंति । मुणिऊण इमं रन्ना गंतुं ते खामिआ गुरुणो ॥ अह गुरुणो पुर-मज्झे चलिया तो ताण पिट्ठओ जक्खो। संचलइ उप्फिडंतो तहऽन्न-देवाण पडिमाओ॥ तत्थासि जक्खभवणे पाहाणमईओ दुलि दोणीओ। ताओ वि पट्ठियाओ ठियाउ पुरओ मुगिंदाणं ॥ एयं दटुं विम्हिय-मणेण गुरुणो जणेण संलत्ता। मिल्लह इमाणि सव्वाणि ताणि मुक्काणि तो गुरुणा ॥ दोणीओ अ मंतीउं नयर-दुवारे तडेसु मुक्काओ। सट्ठाणमाणही सो अन्नो जो मज्झ सरिसो त्ति ॥ इय वडुकरय-जक्खो विजा-सिद्धेहि उवसमं नीओ। जिण-पवयणस्स पवरा पहावणा तत्थ तह विहिया ॥ अह भरुयच्छ-पुराओ समागया तत्थ साहुणो दुन्नि । तेहि कहियं गुरूणं अम्हे संवेण पट्टविया ॥ पहु ! तुम्ह भाइणेज्जो मुणिणो मुत्तूग भोयणे गिद्धो। भिक्खूण गओ मज्झे करणेहि न गंजिओ को वा ?॥
विजा-पभावओ से पत्ताणि उवासगाण गेहाउ । ५६-५७
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