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प्रस्तावः]
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जीव-मन:-करण-संलाप-कथा। जं वज-जलण-जालोलि-तत्त,
मई लोहमइय महिलावसत्त । जंमहि हिमु कुसई खंड करिवि,
उढिओ खणेण पारउ व्व मिलिवि ॥ ७१ ॥ जं कुंभिपाकि पक्कओ परधु,
जं चंड-तुंड-पक्खीहि खडु । जं तिल व निपीलिउ लोह-जंति, __ जं वसहि व वाहिउ भरि महंति ॥ ७२ ॥ अच्छोडिओ जं सिचउ व्व सिलहि,
करवत्ति भित्तु जं कंठ कयलहिं । जं तलेउ कहल्लिहिं पप्पुडु व्व,
सत्थेहि छिन्नु जं चिन्भड व्व ॥ ७३ ॥ असिवत्त वणिज आउदेहि,
असि-सव्वल-सेल्ल-सिलीमुहेहि। जम-जीह-समेहि रडंतु विरसु,
सव्वंगु वियारिउ दीणु विवसु ॥७४॥ तं तुम्ह पसाइण, महं सविसाइण,
सत्तिहि नरएहि भुत्तु दुहु। जहि तिलतुसमत्तु... ...........वि ___ वेयण विहुर हं नत्थि सुहु ॥ ७५ ॥ तिरियत्तणि जं दुह-चकवालु,
मई दूसह पत्तु अणंत-कालु। तं न कुणइ कस्स मुणिज्जमाणु,
उकंपु खणिण मणि अप्पमाणु ॥ ७६ ॥ उस्सप्पिणि तह अवसप्पिणीउ,
नीसंख सहंतउ ताउ सीओ। पत्तेउ वसिउ हउं दारुणेसु,
पुढवी-जल-जलण-समीरणेसु ॥ ७७॥ पत्तेय-अणंत-वणसईसु,
मोहोदय-दूसिय-दुग्गईसु।
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