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कुमारपालप्रतिबोधे एकु बंधिजउं काई, हउं जं सया वि निद्धो सुविठ्ठलं,
इहु तरलिउ लोलयहिं,
रसणु असणु भुजेड मिट्ठउं, भक्खाभक्खु न चिंतवइ न गणइ पेयापेउ । ता परमत्थिण रसणु पर मज्झ वियारह हेउ ॥ ६४॥
इय परोप्परु मणह इंदियह,
पंचन्ह वि कलहरि, वट्टमाणि अह अप्पराइण,
संलत्तु भो ! निहुर ! हु,
करहु पसमु नणु किं विवाइण ?, भवि भवि एत्तिउ कालु किउ मइ तुम्हह संसरगु, जइ पुणु लग्गइ पसमगुणु लो थेवो विन लग्गु ॥६५॥ किं च मए तुम्हाणं निचं असमंजसेहिं चरिएहिं । भव-अडवि-भमण-दुक्खं जं जं पत्तं निसामेह ॥६६॥
जं मच्छ-जम्मु अंतो मुहुत्तु,
लहिऊण मज्झि दुज्झाण-जुत्तु । छावटि-सायर-बहु-दुह-निहाणि,
हउं नरयवासि ठिउ अपइठाणि ॥ ६७॥ तह नरयवासि जं परवसेण,
अइं नरयवाल-मुग्गुर-हएण । अवगूढ वज्ज-कंटय-सणाहु,
सिंबलि-तरु-जणिय-सरीर-बाह ॥ ६८॥ कंदंतु कलुणु जं हढिण धरवि,
वाविय निय मंसु भडित्तु करिवि । जं वेयण-विहुरिय-सव्व-गत्तु, ___ हउँ पाइउं तउयउं तंबु तत्तु ॥ ६९ ॥ जं पूय-रुहिर-वस-वाहिणीइ, __मजाविउ वेयरणी-नईइ । - जं तत्त-पुलिणि चणउ व्व भुग्गु,
जं सूलवेह दुहु पत्तु दुग्गु ॥ ७० ॥
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