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प्रस्तावः]
जीव-मनः-करण-संलाप-कथा ।
अणुकिइडं कि भुंजइ कम्मु कोइ,
नासेइ संकउ तं कस्स लोइ। ता सकउं कम्मु अणुभुंजमाणु,
जणु कीस होइ दुम्मणु अयाणु ॥ ५७ ॥ इय जिणमयमुत्तिहि, बहुविहु जुत्तिहि,
जंपिवि थक्कर मंतिमणु। कयपरियरु संपइ, एउ पयंपइ,
समडफरु फरिसणु करणु ॥ ५८॥ दुक्ख कारणु सामि ! मणु एक्कु,
जं पुव्व-कय कम्मु तुह, दुहु निमित्त एएण जंपिओ,
कम्मस्स वि तासु मई,
मणुजि एक कारणु वियप्पिओ, जं वावारह सयलह वि गरुयउ मण-वावारु, करइ जु तंदुलमच्छह वि सत्तम नरय-दुवारु ॥१९॥ भणइ मणं जइ एवं दुह-हेऊ इंदियाइं न हु कम्मं ।
जव्वसओ कंदप्पो दिप्पइ जलणो व्व घय-सित्तो ॥ ६०॥ तहा हि
जं तिलुत्तम-रूव-वक्खित्तु, ___ खण बंभु चउमुहु हुउ, धरइ गोरि अडंगि संकरु, __ कंदप्प-परवसु चलण,
जं पियाइ पणमइ पुरंदर, जं केसवु नचावियउ गोठंगणि गोवीहिं ।
इंदिय-वग्गह विप्फुरिओ तं वन्नियह कईहिं॥ ६१॥ तो फरिसेणं वुत्तं बंभाईएहि काम-विवसेहिं । पत्तो अजसो कामस्स कारणं तत्थ मणमेव ॥ ६२॥ तो कुद्धेण मणेणं भणियं जइ अप्प ! महसि कल्लाणं । सयलिंदिय-चोर-वद्ध(?) ता बंधसु फुरिसणं एवं ॥ ६३ ॥
ताव फरिसणु एहु भणइ पहु !,
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