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कुमारपालप्रतिबोधे
[पञ्चम जइ पुण रुद्धे वि मणे इंदियमेकं पि कुणइ वावारं । दोसेण तस्स ता मज्झ निग्गहो देव ! कायव्वो॥५०॥
जेव मंकडु चल सहावेण, अन्नन्न-रुक्खिहि रमइ, ___ मणुवि तेवि अन्नन्न-विसइहि, एकत्थ बंधइ न रइ,
नरइ नेइ पई पहु कुवरि इहि, तह सव्वहं विसयहं जइवि निच्चु करइ अणुवित्ति । रक्खसु जिंव दारुणु तह वि एहु न पावइ तित्ति ॥५१॥
जं व दिन्नउं अम्ह कुल दोसु,
मण-मंतिण दुम्मुहिण, भणिवि डिंभ विसयाहिलासह,
तं दूसणु अम्ह न हु,
पहु अच्छु सामिउ वि वासह, जं सो वि हु अम्हह जण संकेएण मणस्स । करइ रायकेसरि कुमर रज्जुह चिंत अवस्स ॥५२॥ पहु ! अप्पह नरिंदाणं दुम्मंती दूसए गुण-कलावं । एकं पि तुंबिणीए बीयं नासेइ गुलभारं ॥५३ ॥
इय भणियइ फरिसिण-इंदिएण,
मणु जंपइ कंपंतउ भएण। अवराहु को वि न हुं इंदियाण,
नहु मज्झ वि वुज्झसु निव-पहाण ! ॥५४॥ किं पुण जि पुत्वजम्मेसु अहिय,
पई देव ! सुहासुह-कम्म-विहिय । सुह- दुक्ख-दंड तुह दिति ताई,
अवराण उवरि रुसेसि काई ? ॥५५॥ सव्वो वि पुव-भव-निम्मियाण,
कम्महं विवागु पावइ नियाण । अवराह-गुणेसु निमित्तमत्तु,
परु होइ जिणागमि एहु तत्तु ॥५६॥
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