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जीव- मनः करणसंलाप-कथा ।
असममसमंजसं देव ! वहए अम्ह कयडम्मि ॥ ३७ ॥ चारित्त धम्म-वसुहा-हिवरस संतोस नामओ चरडो । तुज्झ जणं जइण-पुरे विवेय - गिरि-संठिए नेइ ॥ ३८ ॥ तो कुविओ मोह-निवो भणिओ कुमरेण राय - केसरिणा । देव ! किमेवं किज्जइ थोवारंभे वि संरंभो ।। ३९ ।। जओ मज्झ विसयाहिलासो मंती करणाई तस्स डिभाई । जग-जगडणेहि एएहिं तुज्झ पयडिजए कित्ती ॥ ४० ॥ तावच्चिय संतोसो फुरइ न जा दिति धाडिमेयाई । किं च इमाण कसाया निच्चं पि सयं चिय सहाया ॥ ४१ ॥ संतोस-चरड- निअंतमम्ह लोयं बला नियत्तेउं । एक्कंकं पि समत्थं इमाण पहु ! किं पुणो पंच ॥ ४२ ॥ ता देव ! निदेसं देसु झत्ति एयाण जेण जइण- पुरे । निज्जंतं संतोसेण लोयमेआणि रक्खंति ॥ ४३ ॥ तो जुत्तं ति पयंपिय ताणि निउत्ताणि मोहराएण । संतोस - विव-कए देव ! वियक्खण ! वियाणेसु ॥ ४४ ॥ इय विमरिसेण कहियम्मि पयरिसो भणइ सच्चमेयं ति । तो मण-मंती जंपइ कहेमि पहुणो किमहमलियं ? ॥ ४५ ॥ ता इंदिएहिं वृत्तं संपइ अम्हे वि देव ! विन्नविभो । जंपर अप्पा विन्नवह तो भणइ फरिसणं एवं ॥ ४६ ॥ अम्ह सामिय ! नत्थि कइया वि, तुम्हेहि सह दंसणु वि, ते कस्स गुणदोस जंपहुं,
प्रस्ताव: ]
तं कम्म अम्हिहि करहुँ,
मंती मणिण फुड जत्थ खिष्पहुं, अम्हि सयत्थहिं न हु कह व कम्मि पयहहुं लोइ ।
करि फरिसाइ विवहु मुणहुं जइ मणु पासि न होइ ॥ ४७ ॥ तुह वाहणस्स देहस्स पालणत्थं पयट्टिमा अम्हे । फरिसाइसु विसएसुं अरत- दुट्ठा तुहाणाए ॥ ४८ ॥ जं तेसु फुरइ रागो दोसो वा तं मणस्स माहप्पं । विरमइ मणम्मि रुद्धे जम्हा अम्हाण वावारो ॥ ४९ ॥
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